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Wednesday 13 June 2012

मंदिर के लड्डू

एक पुरुष  का प्रेम अक्सर नारी की देह पर आकर ही क्यों खत्म हो जाता है? क्या एक औरत देह से ज्यादा कुछ नहीं उसके लिए? पुरुष के हृदय में नारी के प्रति प्रेम कम और मस्तिष्क में वासना अधिक होती है| शायद यही मुख्य वजह है औरतों के साथ बलात्कार का|
अक्सर पुरुषों की शिकायत होती है कि औरतें ही उन्हें उकसाती है... कभी अश्लील और उत्तेजक कपड़ो से, कभी मुखर प्रतिक्रिया से...
पर  जब बलात्कार आठ नौ साल की लड़की के साथ होता है तो क्या वो लड़की भी अश्लील इशारे करती है एक अधेड़ आदमी को! जो नपुंशक आदमी उसका बलात्कार करते है|

वेश्यावृत्ति से घिरी औरतें समाज में सम्मान की दृष्टि से नहीं देखी जाती क्योंकि वो  औरतें एक से ज़्यादा पुरुषों के साथ शारीरिक संबंध बनाती है जबकि आदमी भूल जाता है कि उन औरतों को वैश्या बनाने में वो ही शतप्रतिशत भागीदार है| 
पुरुष, एक वैश्या से उत्पन्न अपनी ही बेटी से शारीरिक संबंध बनाता है और औरत को उसकी हद बताता है! 

जिस औरत को सुबह दिन के उजाले में वैश्या की गाली देते, उसी औरत के साथ रात में बिस्तर पर मर्द होने का दम्भ भरते!
एक औरत कभी अपनी मनमर्ज़ी से वैश्या नहीं बनती... वो पुरूष ही है जो घर में बीवी के होते बाहर मुहं काला करता है और औरत को वेश्यावृत्ति करने पर मजबूर करता है|

अभी कुछ महान आदमी बोलोगें... हम जबरदस्ती तो नहीं करते है, किसी के साथ!  पर अगर कोई औरत न माने तो उसपर तेज़ाब डाल देते है, अगवा करवा देते है और कहते है साली मान नहीं रही थी  |

अगर आदमी अपनी बीवी से प्यार करता है तो बाहर मुहं मारने क्यों जाता है? सच तो ये है कि आदमी वासना में लिप्त है उसे अपनी मर्दानगी  दिखाने के लिए १० औरतें चाहिए  |

हमेशा औरतों से ही सुचिता की उम्मीद क्यों की जाती है ? 
एक पुरुष दुनियाँ की हर औरत को भोगना चाहता है, उसके साथ शारीरिक संबंध बनाना चाहता है परन्तु शादी उस लड़की से करना चाहता है जिसका कभी किसी के साथ "चक्कर" न चला हो | किसी और पुरुष ने उसका शीलहरण न किया हो |

अजीब सी दोहरी मानसिकता है पुरुष की... दारुखाने में बैठकर  दोनों हाथों में लड्डू चाहिए वो भी मंदिर के!!! 

Sunday 10 June 2012

कैसे रिश्ते !




"अपने तो अपने होते है बाकी सब सपने होते है" 
ये बात कितनी सही है और कितनी गलत,  इस बात का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता है|
मेरे घर के ठीक सामने एक तिमंजिला मकान है... जो पिछले एक सप्ताह से तोड़ा जा रहा है और लगभग आधे से ज्यादा टूट चुका है|

मकान मालिक को मैंने कभी नहीं देखा,  शायद उनकी मृत्यु  बहुत  पहले हो चुकी है और अपने पीछे वो अपनी पत्नी,  दो बेटियाँ और चार बेटे छोड़ गए और ये मकान(जो हाल में तोड़ा जा रहा है)|  मरने से पहले वो अपने सभी कर्तव्य पूरे कर चुके थे |
मकान मालिक महोदय ने अपने ज़िंदा रहते ही अपनी वसीयत बना दी थी,  जिसमें भूमितल और द्वितीय तल अपने सबसे छोटे बेटे के नाम कर दिया|  प्रथम तल बाकी बचे अपने तीन बेटों में बाँट दिया
और मकान मालिक की पत्नी छोटे बेटे के हिस्से में आईबेटियों को तो अपने समाज में वैसे भी कुछ नहीं दिया जाता है,  ऊपर से ब्याहता बेटियों को तो कुछ भी नहीं,इसलिए उनकों कुछ नहीं मिला

छोटे बेटे ने कुछ दिनों तक अपनी माँ को साथ रक्खा और एक दिन उसने अपनी बूढ़ी माँ को घर से निकाल दिया|  वो और उसकी पत्नी एक बूढी माँ खाना नहीं दे सकते है,  रहने को एक कमरा नहीं दे सकते है और पहनने को एक सूती धोती
बेचारी बेबस माँ क्या करती ? बैठी रही मौत के इंतज़ार में...पर मौत नहीं आई | मौत की बज़ाय छोटी बेटी आ गई और माँ को अपने साथ लेकर चली गई|
आज वो बूढी माँ ज़िंदा है या मर गई,  मुझे नहीं पता... मैं यहाँ बेटी की प्रशंसा नहीं करना चाहती! 

बेटों ने मकान बेच दिया और कीमत आपस में बाँट ली| प्रश्न तो ये है कि एक पति ने सही किया अपनी पत्नी के साथजिस औरत का हाथ पकड़ कर सात फेरें लिए थे, उसके बुढ़ापे के लिए एक बोरा अनाज को अपनी वसीयत में जगह न देना सही हैजिस औरत के साथ मिलकर उसने अपने वंश को बढ़ाया,  उसको बुढ़ापे में तन ढकने के लिए दो धोतियो का पैसा नहीं देना... सही है?
जिस औरत ने पति के साथ मिलकर अपने  हाथों से घर बनाया था, क्या उसके नाम पर एक कमरा नहीं करना चाहिए थाक्या  अपनी  पत्नी  को  बेटों  के  आश्रित  छोड़ना  सही  निर्णय  है? 

औलादें तो नालायक होती है,  पर वो पति कैसे इतना निष्ठुर हो सकता है, जिसके सुख दुःख में औरत बराबर साथ देती है!

भारत में आज भी औरतें अपना अलग वज़ूद नहीं तलाशती,  वो किसी की बेटीपत्नी और माँ बन कर ही खुश है पर सम्मान की दो रोटी की उम्मीद तो रख ही सकती है अपने पति और अपने बेटे से?
समझ पाना बहुत ही मुश्किल है कि कौन अपना है... वो पति;  जिसके सुख दुःख को अपना समझा, जिसके वंश को आगे बढ़ाया, जिसके नाम पर अपनी पूरी जवानी कर दी|
या फिर वो औलादें जिनको नौ महीने अपनी कोख में पाला, जिनका मल-मूत्र साफ़ किया,अपना खून जला कर दूध पिलाया! या फिर कोई नहीं है...

क्या औरतें! सुबह खाना बनाने वाली नौकरानी और रात में सिर्फ सोने भर की चीज़ है? 



Saturday 9 June 2012

"डियो लगाओ और लड़की पटाओ "

आजकल कोई भी चैनल देखो टीवी पर, एक ही प्रकार के  विज्ञापन  दिखाई देता है|
"डियो  लगाओ  और  लड़की  पटाओ " 
एक डियो के विज्ञापन में- एक लड़का अपने ज़िस्म पर ऊपर से लेकर नीचे तक डियो की आधी बोतल जैसे ही स्प्रे करता है, दुनिया भर की तमाम लड़कियां उसके कमरे आ धमकती है| एक और दूसरे विज्ञापन में जैसे ही लड़का फलां कम्पनी का डियो लगाता है समुद्रतट पर खड़ी लड़कियाँ  उस पर टूट पड़ती है और विज्ञापन सांकेतिक रूप से दिखाता है कि लड़का, लड़कियों के अंत:वस्त्र खोल रहा है |
कोई भी विज्ञापन देखो, सबका एक ही मकसद है- लड़की पटाओ| इसके अलावा तो टीवी में कुछ आता ही नहीं| फलां साबुन से नहाओ, फलां शैम्पू लगाओ और लड़की को पटाओ|


ऐसे ही एक और विज्ञापन आता है टीवी के "प्राइम टाइम" पर महिलाओं के अंत:वस्त्रों का- बाज़ार में घूमती कुछ लड़कियाँ एक लड़के को देखकर आपस में बोलती है कि वो हमारे वक्ष देख रहा है ... "क्या हमारे अंत:वस्त्र ठीक नहीं है " ? 


ये क्या है ? इतने वाहियात और घटिया विज्ञापन बनाने का उद्देश्य क्या है?  उत्पादक कम्पनी अपने विज्ञापन में क्या दिखाना चाहती है? क्या आज के युवा पीड़ी के पास सेक्स के अलावा कोई और काम नहीं है करने के लिए ? क्या लड़के/लडकियां पटाना ही उनके जीवन का पहला और आख़िरी उद्देश्य है? अगर  डियो लगाने से ब्रम्हांड की सभी लड़कियाँ पट जाती है तो फिर क्यों सड़क चलते हुए लड़कियों से छींटाकशी और छेड़छाड़ होती है? क्यों लडकियां बलात्कार की शिकार हो रही है?
अरे फलां नामचीन कम्पनी का डियो लगाओ और लडकियां  डियो की गंध से आपके पीछे पीछे भागती चली आयेगी|


महिलाओं के कोई भी उत्पाद ले लो .... बॉडी लोशन से लेकर ब्रा तक या फिर लिपस्टिक से लेकर व्हिस्पर तक हर विज्ञापन में वो लड़कों को पटाती नज़र आती है और लड़के आसानी से पट भी जाते है|
अरे फलां कम्पनी का बॉडी लोशन लगाने से या किसी बड़ी प्रतिष्ठित कम्पनी की चाय पिलाने से लड़के और उनके घर वाले पट जाते हैं तो क्यों अपने देश में दहेज प्रथा अभी तक बंद नहीं हुई है?


सिर्फ नामचीन कम्पनी का डियो लगाने भर से लड़कियां नहीं पटती और न प्रतिष्ठित कम्पनी के बॉडी लोशन से लड़के !
सच तो ये है आज भी लडकियां, लड़कों के व्यक्तित्व और विचारों को प्राथमिकता देती है और लड़के, लड़कियों की शालीनता और संस्कारों को|


समय बदल गया, शताब्दी बदल गई पर आज भी नैतिक मूल्य नहीं बदले और न हीं ये बुद्धू बक्सा बदला! कल की तरह ये बुद्धू बक्सा आज भी बुद्धू ही है|










Wednesday 6 June 2012

शुभारंभ

आखिरकार  श्री गणेश हो ही गया!
बहुत दिनों से सोच रही थी एक ब्लॉग बनाने की... आज लगभग शायद बन गया है| मुझे ज्यादा कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या कैसे करना है? फिर भी ४ दिन के सिरदर्द और मेहनत थोड़ी बहुत रंग ले आई है| बहुत सोचा इसके नाम में बारे में क्या रक्खूं? फिर अचानक  दिमाग के बत्ती जगी कि चार दिन से मूढ़ खपा रही थी मतलब कि संज्ञाशून्य हो कर अंग्रेजी के suffer में सफ़र कर रही थी, इसलिए इसका  नाम ढूढ़ निकाला शून्य से अनंत तक   एक अंजाना अनोखा सफ़र...

वैसे मैं इतना ज्यादा सोच विचार नहीं करती हूं, क्योंकि मेरे दिमाग के कीड़े का कोई राइट टाइम नहीं है कि कब वो कुलबुलाने लगे और मैं कुछ भी बेसिर पैर की पोस्ट शेयर कर दूँ| इसलिए सोचा कि अपना एक ब्लॉग बना लेते है; जब कभी दिमाग के बंदर गुलाटी मारेगें एक आध पोस्ट चिपका दूंगी और वैसे भी कभी कभी अपने दिमाग का इस्तेमाल करने में अपना क्या जाता है! अपने पास तो दिमाग का पूरा स्टॉक है, जब मन करेगा ५० ग्राम खर्च कर दूंगी आखिरकार दिलदार जो ठहरी!