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Friday 28 September 2012

पाकिस्तान फिर सुर्ख़ियों में...!

लगता है सुर्ख़ियों में रहना पाकिस्तान की पुरानी बेशुमार आदतों में से एक पसंदीदा आदत बन गई है| अक्सर पाकिस्तान भारत में आतंकी घुसपैठ और क्रिकेट खेल जगत में सट्टेबाज़ी के लिए सुर्ख़ियों में छाया रहता है और कभी अपने शीर्षस्थ नेताओं के बड़बोलेपन तथा "सर कलम" करने जैसे फ़तवे के लिए तो कभी तख़्ता पलट कर सत्ता में आने और पूर्व मंत्रियों पर महाअभियोग लगा कर देश से निकालने जैसे कामों के लिए पाकिस्तान हमेशा ही सुर्ख़ियाँ बटोर ही लेता है| कभी अमेरिका पाकिस्तान को बिना बताए उसके ही क्षेत्र में छुपे लादेन को ढेर करके उसे चर्चा में ला देता है तो कभी आम नागरिकों की दयनीय स्थिति और उनके मौलिक अधिकारों का हनन, पूरे विश्व में चर्चा का विषय बन जाता है|
यूँ कहें जहाँ पाकिस्तान वहाँ सूर्खियां या फिर जहाँ सूर्खियाँ वहाँ पाकिस्तान! मतलब पाकिस्तान और सुर्ख़ियों का साथ चोली-दामन जैसा हो गया है|

पिछले कुछ दिनों से पाकिस्तान फिर से सुर्ख़ियों में हैं पर इस बार सुर्ख़ियों की वज़ह कोई  कुख़्यात मंसूबा  नहीं बल्कि "प्रेम" है| अरे हाँ... सही पढ़ा है आपने; मैंने प्रेम ही लिखा है और प्रेम भी ऐसा वैसा साधारण सा नहीं है, जिस पर कोई भी दो टके का मौलवी या पंचायत मुँह उठाकर सर कलम करने का फतवा ज़ारी कर दे| यह प्रेम जन्मा है राष्ट्रपति ज़रदारी के बेटे बिलावल और विदेश मंत्री हिना रब्बानी के बीच| बिलावल और हिना दोनों ही खानदानी राईस और रसूखदार हैं और दोनों का देश की राजनीति में अच्छा ख़ासा रूतबा और दबदबा है|
यह रिश्ता किसी को मंजूर नहीं है खासकर राष्ट्रपति ज़रदारी को तो बिल्कुल भी नहीं| वह नहीं चाहते उनका २४ वर्षीय बेटा ३५ वर्षीय हिना (दो बच्चों की माँ) से शादी करे| जहाँ एक ओर हिना के पति फिरोज़ हिना-बिलावल की प्रेम-कहानी को मात्र एक अफ़वाह बता रहे हैं वही दूसरी ओर राष्ट्रपति ज़रदारी भी हिना पर राजनीतिक और गैर राजनीतिक दबाव बना रहे हैंअब तो इस प्रेमी-जोड़े पर मीडिया भी गिद्द की तरह नज़रे गढ़ाए बैठी है और खोद खोद कर खबरें निकाल रही है| जिससे दोनों परिवारों की पेशानी पर बल पड़ने लाज़मी हैं

इन दोनों का प्रेम पाकिस्तान के लिए सिरदर्दी का सबब बन सकता है| इनका प्रेम समाज और राजनीति में भारी उठ-पटक भी करने में सक्षम नज़र आ रहा है| पाकिस्तान को अभी से एक भारी बदलाव के लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिएपरन्तु इस प्रेम-प्रसंग को लेकर अभी कुछ कहा नहीं जा सकता और साथ ही यह प्रेम-प्रसंग कुछ अंदेशाओं को जन्म भी दे रहा है| यह प्रेम-कहानी बेनाज़ीर-ज़रदारी के प्रेम के जैसी लग रहे है| जैसे बेनाज़ीर, ज़रदारी के लिए राजनीतिक महकमों में घुसने का "बोर्डिंग पास" साबित हुई थी, ठीक वैसे ही बिलावल, हिना के लिए राष्ट्रपति की गद्दी तक पहुँचने का सिर्फ ज़रिया न बन जाए|

जैसा कि दीगर है हिना एक अति महात्वाकांक्षी महिला हैं, जो राजनीति में अपना एक ऊँचा कद बनाने की जुगत में हैं और आहिस्ता आहिस्ता वो अपने मकसद में कामयाब भी हो रही हैं और इस समय हिना का नाम बिलावल के साथ जुड़ना, हिना के लिए ही पतन का कारण बन सकता है पर अगर हिना की नज़र राष्ट्रपति की गद्दी पर है तो यह रिश्ता उन्हें वहाँ तक पहुँचने में काफ़ी मददगार साबित हो सकता है| वहीं अगर बिलावल भी सिर्फ हिना की ज़िस्मानी ख़ूबसूरती पर मर मिटे हैं तो उन्हें इसका खामियाज़ा राजनीतिक और निज़ी तौर पर भुगतना पड़ सकता है
यदि दोनों का यह प्रेम सतही और ज़िस्मों की हदों पर महसूस किया जा रहा है या किसी राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है तो इसका हश्र चाँद मुहम्मद और फ़िज़ा जैसा ही होगा|
परन्तु यदि यह प्रेम सच्चा है और सभी सामजिक वर्जनाओं को तोड़कर अपने मुकाम तक पहुँचता है तो सच में पाकिस्तान के काले इतिहास में यह घटना सदियों तक चमकती रहेगी|

हिना का अभी अभी बयान आया है कि उनके और बिलावल के बीच कुछ नहीं हैं| हिना के इस बयान पर किसी का दबाव साफ़ साफ़ नज़र आ रहा है| अब देखना होगा कि बिलावल पर इसका क्या असर होता है क्योंकि इतनी जल्दी हिना और बिलावल मानने वाले तो नही हैं|

पाकिस्तान के इतिहास में एक जबरदस्त मोड़ आने वाला है| इस सम्बन्ध पर पाकिस्तान जो भी कदम उठाएगा वह इतिहास में दर्ज होना तो तय ही है
दिलचस्प होगा यह देखना कि पाकिस्तान नया इतिहास बनाता है या बेनाज़ीर-ज़रदारी का इतिहास दोहराता है|


Tuesday 25 September 2012

शांति की खोज़ में...

भारत प्राचीन काल से ऋषि-मुनियों का देश रहा है| भारत की धरती पर अनेक महात्माओं ने जन्म लिया और अपना सम्पूर्ण जीवन, जीव कल्याण में लगा दिया| प्राचीन ऋषि मुनि ईश्वर की खोज़ में दर दर भटकते रहे परन्तु उन्हें साक्षात ईश्वर के दर्शन कभी नहीं हुए

आज आधुनिक काल में भी भारत में बाबाओं और साधुओं की कमी नहीं हुई है| शायद अगर गिनती करने बैठेगें तो प्राचीन काल से ज़्यादा साधु और बाबा मिल जाएगें क्योंकि आज कुकुरमुत्तों के जैसे हर गली-नुक्कड़ पर ढोंगी बाबाओं की दुकानें खुल गई हैं जो आम जनता को ईश्वर तक ले जाने में बड़ी सहायक सिद्ध हो रही हैं और जनता भी  ईश्वर को पाने के लिए  इन बाबाओं और साधुओं के पीछे  पागलों की तरह भाग रही है| कई लोगों ने तो ईश्वर को छोड़ कर इन बाबाओं को पूजना शुरू कर दिया है, उनका मानना है कि जो कार्य ईश्वर करने में असमर्थ है, वह सारे काम इन बाबाओं की एक कृपादृष्टि से पल भर में चुटकी बजाते हो जाते हैं

इन तथाकथित बाबाओं और साधुओं का ईश्वर से "डाइरेक्ट कनेक्शन" होता है तभी तो पाँच मिनट के ध्यान से ईश्वर अपना सारा काम-धाम छोड़ कर इनके पास दौड़ा चला आता है और इनके भक्तों की अपनी सामर्थ्य अनुसार समस्याएं दूर करने में जुट जाता है| कभी कभी तो मुझे लगता है कि ईश्वर, इन पहुंचे हुए बाबाओं और साधुओं के यहाँ बंधुआ मजदूर है, तभी तो इनकी एक आवाज पर उल्टे पाँव भागता चला आता है

प्राचीन काल के बड़े बड़े ऋषि-मुनियों ने दर दर भटक कर जंगलों में सिर्फ घास ही छीली है शायद इसीलिये  ईश्वर उनसे कभी प्रसन्न नहीं हुआ और न कभी उनको अपने दर्शन दिए| उन्होंने ईश्वर को पाने के लिए अपनी पत्नी और गृहस्थी छोड़ी पर उन्हें ईश्वर तो दूर, ईश्वर का नाखून तक न मिला और अंत में बेचारे अपनी असफ़ल यात्राओं और खोज़ का सारा चिट्ठा हमें दर्शनशास्त्र के रूप में टिका कर चले गए|

पर आज के बाबाओं और साधुओं की ईश्वर पर पकड़ बहुत अच्छी और मजबूत है, तभी तो आज के बाबाओं को ईश्वर की खोज़ में भटकना नहीं पड़ता है| वो लोग आराम से अपने एसी कमरों में बैठे रहते हैं और पाँच-छै: कमसिन बालिकाएं उनकी सेवा में हर पल तत्पर रहती हैं और बाबा  इन  कन्याओं  की  मदद  से  ईश्वर  की  खोज़ करते  रहते  हैं|

यह १८-२० साल की युवतियाँ इन वातानुकूलित आश्रमों में मानसिक शान्ति की खोज़ में आती हैंकुछ ईश्वर की प्राप्ति के लिए तो  कुछ स्वयं को जानने के लिए इन बाबाओं के सानिध्य में रहना चाहती है| यह सभी लडकियां अपने उद्देश्य में कितना सफल होती हैं यह तो वही जान सकती हैं पर बाबा के तन की शान्ति की खोज़ में यह लड़कियां अपना पूर्ण सहयोग देती हैं| बाबा और उनके शिष्य इन चेलियों के साथ रोज़ तन की शान्ति यात्रा पर निकल जाते हैं|
और जब कुछ समय पश्चात बाबा जी को तन की शान्ति के लिए दूसरी लड़की मिल जाती हैं तो यही लडकियां बाद में रोना रोती हैं "हाय हाय मेरा बलात्कार हो गयापिछले दो साल से स्वामी जी और उनके शिष्य मेरा यौन शोषण कर रहे थे और न जाने कितनी बार मेरा गर्भपात कराया गया है"

कभी कभी तो मुझे लगता है कि  लड़कियां खुद ही कमज़र्फ़ होती हैं, जो ढोंगी पाखंडियों से स्वामी जी स्वामी जी करते जा चिपकती हैइन लड़कियों से घर में बैठ कर ईश्वर की पूजा नही की जाती है पर मुहं उठा के चल देती है स्वामी जी के सानिध्य में, शांति की खोज में...
अभी दूध के दांत टूटे भी नहीं होगें पर पता नही इन १८-२० साल की लडकियों को कौन सी और कैसी शांति की खोज रहती हैं|
अरे जब चार गैर मर्दों के बीच अकेली रहोगी... तो बलात्कार नहीं होगा तो क्या होगा?
वो कहावत तो सुनी ही होगी "जब आग फूस साथ रखोगें तो जलेगें ही" 
अपने हिंदू धर्म में कहीं नहीं लिखा है कि औरतों और लड़कियों को किसी पुरूष को गुरू या स्वामी बनाने की आवश्यकता हैउनका गुरू, स्वामी, ईश्वर सब कुछ उनका पति ही होता है पर कौन समझाएं इन करम-जलियों को!!!
सबसे बड़ी रोचक बात तो यह है कि आज के इस तकनीकी युग में कैसे कोई इन आश्रमों में बैठ कर दर्शनशास्त्र पढ़ सकता है? १८-२० साल की उम्र में लोग सबसे ज़्यादा संसारिक होते हैं, इसी उम्र में लोग प्रेम-प्रसंगो में लिप्त होते है| अपना और परिवार का नाम रोशन करने की चाह होती है| इस उम्र में तो मानसिक शान्ति की किसी को कोई ज़रूरत ही नहीं होती हैतो फिर कैसे ये लडकियां इन आश्रमों में पहुँच जाती हैं

मैं यह नहीं कहती कि किसी पराये मर्द से बात मत करो या किसी से हँसों बोलो नहीं... पर चिपकने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि अपने समाज में गलती चाहें स्त्री की हो या पुरुष की, उसे हमेशा स्त्रियों के सिर ही मढ़ा जाता है| स्त्रियों की शारीरिक बनावट ही ऐसी है कि लाख चाहने के बावज़ूद भी कोई गलती छुप नहीं सकती

इन ढोंगी पाखंडियों की सच्चाई से सभी वाकिफ़ हैं फिर भी इनकी दुकानें चलती हैं क्योंकि हम सब देख कर अंधे बने रहना चाहते हैं| किसी बाबा के आश्रम से नन्हें-मुन्हें बच्चों के शव निकलते हैं तो कोई देश-विदेश में बड़े पैमाने पर सेक्स रैकेट चला रहा है| कोई नाबालिग लड़कियों के रेप केस में १०-१२ साल की सज़ा काट चुका हैं तो कोई धर्म के नाम पर पैसा बटोर कर होटल और बार चला रहा है और तो और कुछ मंदिर की गद्दी पाने के लिए अपने ही गुरु/मित्र की हत्या करवा देते हैं| फिर भी हम कुछ नहीं कहते क्योंकि हमारे लिए धर्म से बढ़ कर कुछ है| हम सबको जीते जी और मरने के बाद स्वर्ग ही चाहिए, सिर्फ इसका फ़ायदा ये पाखंडी उठाते हैं|

इन तथाकथित बाबाओं का अगर भूतकाल देखेगें तो कोई दर्जी था तो कोई सड़क के किनारे समोसे तालता था, किसी के ऊपर बैंकों का ब्याज़ बाकी था तो कोई अपने दोस्त की हत्या की सज़ा से बचने के लिए बाबा बन बैठा है| जिसको हिन्दी ठीक से बोलनी नहीं आती वो एक ही रात में अचानक से भारतीय दर्शनशास्त्र का महान विद्वान बन जाता है१८-२० साल की लड़कियों के साथ रास रचाने वाले ५० साल के पहुँचे हुए बाबा आम जनता से कहते हैं भोग-विलास छोड़ दो| लक्ष्मी का मोह छोड़ दो, पैसा तो हाथ का मैल है, आता है जाता है पर जब कोई आयोजक इन्हें इनकी फीस से १ रूपये कम देता है तो वहाँ कथा कहने नहीं जाते हैं| खुद तो चवन्नी चवन्नी के लिए मरे जाते है और जनता तो मोह त्याग करने को कहते हैं|

ये पाखंडी और कुछ नहीं हैं सिर्फ हमारे धर्मान्ध होने का फायदा उठाते हैं और हम इतने मुर्ख हैं कि सब जानते हुए भी इनका ही साथ देते हैं|


Saturday 22 September 2012

लव, सेक्स और धोखा




आज आधुनिक युग में प्रेम की परिभाषा बदल गई हैं| आज प्रेम का अर्थ शारीरिक सम्बन्धों से लगाया जाता हैं और बहुत हद तक यह सही भी हैं क्योंकि आज के अधिकांश लड़के और लड़कियों ने प्रेम की परिभाषा ही बदल कर रख दी है| उनके हिसाब से “प्रेम” जैसा कुछ होता ही नहीं और अगर प्रेम है तो वह सिर्फ पैसा हैं| अधिकतर लोगों का फलसफ़ा होता हैं प्रेम के नाम पर अपना काम निकालो और चलते बनो, चाहें सामने वाले की भावनाएं कितनी भी पवित्र और निर्मल क्यों न हो, वह लोग उनकी भावनाओं से खेलने में गुरेज नहीं करते हैं| उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता कि सामने वाले पर क्या बीतेगा जब उसे उनकी असलियत का पता चलेगा| उन्हें इस बात का भी डर नहीं होता कि सामने वाले की नज़रों में वह गिर जाएगें|

आज नर हो या नारी सब आगे बढ़ना चाहते हैं इसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार हो जाते है| कई बार तो तरक्की पाने की खातिर वह अपने नैतिक मूल्यों के साथ साथ अपने शरीर को भी दाँव पर लगा देते हैं| सुप्रीमकोर्ट की महिला वकील हो या गीतिका शर्मा और बहुत से उदाहरण हैं जिन्होंने सिर्फ तरक्की के लिए अपने शरीर का सौदा कर लिया| वही दूसरी ओर पूनम पाण्डेय, शर्लिन चोपड़ा और राखी सावंत जैसे भी लोग हैं जो सस्ती प्रसिद्धि के लिए बीच सड़क पर अपने कपड़े उतारे से परहेज नहीं करते हैं| बहुत से तो ऐसे नाम हैं जिन्हें यहाँ लेना उचित नहीं है| बहुत सी महिलाएं अपनी तृप्ति और वासना की संतुष्टि के लिए नित नए जिस्म की तलाश में रहती हैं|

फिर एक और प्रश्न उठता है कि क्या सिर्फ औरतें ही अपने ज़िस्म को नंगा करने पर तुली हैं, पुरुष नहीं ?

जॉन आब्रहीम, सलमान खां को कौन भूल सकता है? अक्षय कुमार ने एक स्टेज शो के दौरान अपनी पत्नी से अपनी जींस का बटन बंद करवाया था, यह कौन भूल सकता है? सस्ती लोकप्रियता के लिए इतने बड़े मंच पर अश्लीलता से परिपूर्ण यह कदम निंदनीय है| वासना तृप्ति के लिए पुरुष, औरतों की तुलना में ज़्यादा साथी बदलते हैं|

इतिहास उठाकर देखेगें तो पुरुषों ने ही औरतों को बाज़ार में बेचा हैं, उन्हें देवदासी, नगर वधुएँ और वैश्या बनाने में उनकी ही मुख्य भूमिका थी| आज यह कह देना कि पुराने जमाने में औरतें मज़बूरी में वैश्या बनती थी पूर्णतयाः गलत हैं| पुरुष ने अपनी वासना तृप्ति के लिए औरत को देवदासी और नगर वधुएँ बनने पर मजबूर किया और उन्हें ही समाज से बाहर निकाल दिया| अपने ज़िस्म की भूख मिटाने के लिए उसने औरत को वैश्या बनाकर सड़क पर खड़ा कर दिया और स्वयं पवित्रता का चोला ओढ़े घूम रहा है|

कोई भी औरत वैश्या नहीं बनाना चाहती है चाहें वह आदिकाल हो या आधुनिक काल, पर जब पुरुष चंद सिक्कों और अपनी वासना के लिए नपुसंकता की हद पार करने पर उतारू हो तो औरत क्या करे? वैश्या या देवदासी बनी औरतों और उनके बच्चों के लिए अपने समाज में जगह है ही कहाँ? मज़बूरन उन्हें उसी क्षेत्र में रहना पड़ता है|

प्रेम के नाम पर हमेशा ही शोषण होता हैं और यह एक कटु सत्य है कि प्रेम के नाम पर शोषण पुरुष ही करता है जिसका ख़ामियाज़ा हमेशा औरतों को ही भुगतना पड़ता है| हाल ही में चंद्रमोहन की पत्नी फ़िज़ा उर्फ अनुराधा बाली के प्यार ने कितना बवाल मचाया| यह प्रेम नहीं था यह वासना थी और एक औरत का शोषण था| जाने माने फ़िल्म अभिनेता शत्रुध्न सिन्हा के रीना रॉय से प्रेम सम्बन्ध थे परन्तु उन्होंने रीना से शादी न करके पूनम से शादी की क्योंकि रीना रॉय एक बार डांसर थी और पूनम प्रतिष्ठित परिवार से ताल्लुक रखती थी| कौन इसको प्रेम का नाम देना चाहेगा? कम से कम मैं तो इसे प्रेम का नाम नहीं दे सकती| 

वह प्रेम ही क्या जो समाज के सामने स्वीकारा न जा सके| वह साथी क्या जो अपने प्रेम को कलंकित और अपमानित होने से न बचा सके| वह प्रेमिका क्या जो अपने प्रेमी पर अपना सब कुछ न्यौछावर न कर दे और वह प्रेमी, प्रेमी नहीं जो मौत से पहले अपनी प्रेमिका का साथ छोड़ दे|

शायद प्रेम में वासना का मिलन आज नहीं बल्कि आदिकाल से चला आ रहा हैं, बस आज के युवा-युवतियों ने इस वासनायुक्त प्रेम से पर्दा उठा दिया है| जो कृत्य समाज में रात के अंधेरों और पर्दे के पीछे हो रहा था, उन्होंने उसे सबके सामने उजागर कर दिया है|

पहले की तरह आज भी प्रेम है पर उनके लिए जो निभाना जानते हैं, जिन्हें सिर्फ ज़िस्म दिखता है उनके लिये नहीं| मैं यह नही कहती कि प्रेम में ज़िस्म की चाहत नहीं होती, पर सच्चे प्रेम में झूठ नही होता, शरीर के प्रति आसक्ति नहीं होती, वासना नहीं होती| 

हमें प्रेम से नहीं वासना से बचना चाहिए| स्त्री हो या पुरुष, सबको अपनी देह के सौदे पर मिलने वाली तरक्की से बचना चाहिए| आधुनिकता के नाम पर नंगे होने से बेहतर है कि हम पूरे कपड़े पहनकर रूढ़ीवादी बने रहे क्योंकि अपनी मेहनत और ईमानदारी से कमाई गई शोहरत और पैसा लंबे समय तक रहता हैं जबकि ज़िस्म की हदों पर कमाई गई इज्ज़त जवानी के चार दिन जैसी होती है|

Friday 14 September 2012

हाँ हिन्दी ही हैं हमारी मातृभाषा !!!



 भाषादोनों लोगों के बीच संवाद स्थापित करने का एक साधारण परन्तु सशक्त माध्यम हैभाषाज्ञान के अभाव में हम न तो किसी की भावनाएँ समझ सकते है और न अपने अतंर्मन की मनोस्थिति किसी को समझा सकते हैंभाषा ही समाज को सभ्य और सुसंस्कृत बनाती हैकिसी देश या संस्कृति की उन्नतिवहाँ की भाषा पर निर्भर करती हैभाषा जितनी समृद्धिशाली और सशक्त होगीदेश उतना ही विकसित और उन्नत होगा|

यदि हमको अपनी मातृभाषा पर अधिकार नहीं है तो हम किसी और भाषा पर अपना अधिकार स्थापित नहीं कर पाएँगे क्योंकि दूसरों पर हम तभी विजय प्राप्त कर सकते हैं जब हमें अपने आप पर पूर्ण अधिकार प्राप्त होहम चाहें कितना भी पढ़-लिख जाएँ अगर हमें अपनी मातृभाषा नहीं आती तो हम अपनों से दूर हो जाएंगेंहम कितनी ही भाषाओं के ज्ञाता क्यों न हो परन्तु चिंतन-मनन हमेशा अपनी मातृभाषा में ही करते हैं और यहाँ तक कि हम अपना रोष भी अपनी ही भाषा में प्रकट करते हैं|

भारत में लगभग ६३ भाषाएँ मान्यता प्राप्त हैं और इसके अलावा न जाने कितनी और भाषाएँ और बोलियाँ हैं जो प्रचलन में हैंदेवनागिरी लिपि के साथ हिन्दी भाषा को १४ सितम्बर १९४९ को राजभाषा घोषित किया गया थाभारत में हिन्दी मुख्यतः उत्तरप्रदेशमध्यप्रदेशपूर्वी राजस्थान और बिहार के कुछ हिस्सों में बोली जाती है परन्तु अन्य जगहों पर हिन्दी के साथ साथ स्थानीय भाषा भी प्रमुखता से बोली जाती हैसमय के साथ हिन्दी ने स्वयं को एक नई पहचान दी हैकुछ शिक्षाविदों और समाजसेवी संस्थाओं ने हिन्दी भाषा को विश्व पलट पर खड़ा करने में बहुत मदद की है|

हिन्दी भाषा से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य कुछ इस प्रकार हैं -:
  •  विश्व में लगभग ५० करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं|
  • विश्व में ८० करोड़ लोग हिन्दी समझ सकते हैं|
  • अंग्रेजी और चीनी भाषा के बाद हिन्दी तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है|
  • ब्रिटेन में वेल्स के बाद हिन्दी भाषा का स्थान दूसरा है|
  • फिजीमोरिशसगुयानासूरीनामट्रिनिडाडटाबैगो एवं संयुक्त अरब अमीरात में हिन्दी अल्पसंख्यक भाषा है|
  • दुनिया के करीब ११५ शिक्षण संस्थानों में हिन्दी का अध्ययन होता है|
  • अमेरिका के ३२ संस्थानों में हिन्दी पढ़ाई जाती है|
  • ब्रिटेन की लंदन यूनिवर्सिटीकैंब्रिज यूनिवर्सिटी एवं यार्क यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढाई जाती है|
  • जर्मनी के १५ शिक्षण संस्थानों ने हिन्दी भाषा के अध्ययन को अपनाया है|
इसके अलावा बहुत से विदेशी साहित्यकारों ने हिन्दी भाषा में अपनी रचनाओं को कलमबद्ध किया हैजिनमें से किम यांग शिक (दक्षिण कोरियाई साहित्यकार)विक्टोरिया सेलेना (रूसी साहित्यकार)प्रोफ़ेसर विड हान (रामचरित मानस का चीनी भाषा में अनुवाद किया है)प्रोफ़ेसर ओडोलीन सीमीचेल ने तो बहुत सी रचनाएँ हिन्दी में लिखी हैंजिनमें से मेरे प्रीत तेरे गीतस्वाती बूंदनमो नमो भारतमाता प्रमुख रचनाएँ हैं|

आज विदेशों में हिन्दी अपना परचम लहरा रही है परन्तु भारत में हिन्दी भाषा को कोई सम्मान नहीं प्राप्त हैसिवाय इसके कि वह राष्ट्रभाषा हैभारत के सरकारी एवं गैरसरकारी संस्थानों का कोई कार्य हिन्दी में नहीं होता हैयहाँ लोगों को हिन्दी बोलने में शर्म आती हैहिन्दी को अनपढ़ों और गवाँरों की भाषा समझा जाता हैभारत में अंग्रेजी अघोषित राजभाषा बन गई हैहिन्दी राजभाषा के साथ सबसे बड़ी विडम्बना यह कि स्नातक छात्रों तक को हिन्दी की वर्णमाला नहीं आती हैसिर्फ हिन्दी भाषा एक ऐसी भाषा है जो अन्य भाषाओं के शब्दों को बड़ी आसानी से अपने स्वरुप में समाहित कर लेती हैहिन्दी एक विस्तृत और विशाल भाषा है परन्तु इसमें कुछ संशोधन की आवश्यकता है पर इसका मतलब यह नहीं है कि हम हिन्दी से दूर भागे या हिन्दी को अपनाने में शर्म करें|

सबसे बड़ी हास्यास्पद बात तो यह है कि सुबह से लोग एक दूसरे को “Happy Hindi Day” बोलकर हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ दे रहे हैंवही दूसरी ओर १५ अगस्त और २६ जनवरी को भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति, देश को राष्ट्रीय भाषा हिन्दी में सम्बोधित न करके अंग्रेजी में अपना भाषण सुनाते हैं और निर्लज्जतापूर्वक कहते हैं कि अंग्रेजी एक समृद्धिशाली भाषा हैकुछ शीर्षस्थ नेता तो यहाँ तक कहते हैं कि हिन्दी नौकरों की भाषा हैमैं यह नहीं कहती कि अंग्रेजी अशिष्ट भाषा है परन्तु देश के प्रतिनिधियों को राजभाषा के साथ ऐसा व्यवहार करना शोभा नहीं देता है|

भारत एक हिन्दीभाषी देश है परन्तु पूरे वर्ष हिन्दी भाषा की किसी को कोई चिंता नहीं होती लेकिन सितम्बर माह के प्रारंभ होते ही सरकारी और गैर सरकारी संस्थान हिन्दी पखवाड़ा मनाने में जुट जाते हैंजगह जगह पर सम्मेलन एवं संगोष्ठियाँ प्रारंभ हो जाती हैंहिन्दी भाषा के साथ यह होना चाहिएवह होना चाहिए या यह नहीं होना चाहिए... कुछ इस तरह के विषयों पर शिक्षाविद एवं कवि विचार करते नज़र आते हैं परन्तु हिन्दी पखवाड़ा बीतते ही सब लोग हिन्दी का चोला उतारकर खूंटी पर टांग देते हैं और अंग्रेजियत को गले से लगा कर धूमने लगते हैंहिन्दी भाषा की स्थिति बिल्कुल उस ब्याही बेटी की तरह हो गई हैजिसको महत्वपूर्ण अवसर पर ही मायके बुलाया जाता है और अपने देश में हिन्दी दिवस मनाना तो बिल्कुल करवाचौथ के त्यौहार के जैसा हैपूरे साल पति को “बैकफुट” रखने वाली भारतीय पतिव्रता नारियाँ अचानक करवाचौथ को अपने “बैकफुटिए पति” को परमेश्वर बनाकर पूजती हैं और अगला दिन होते ही परमेश्वर पति फिर से बेचारे पति में बदल जाता हैहम भी अपनी राजभाषा के साथ बिल्कुल ऐसा ही कर रहे हैं| साल के ३६४ दिनों में हमें हिन्दी की याद नहीं आती लेकिन हिन्दी दिवस को अचानक उसे सजा-सवाँरकर कवि सम्मेलनों और सभागारों में मुज़रा कराने के लिए बैठा देते हैं| हमें समझना चाहिए  राजभाषा आखिर राजभाषा है, हमारे सम्मान और अस्तित्व का प्रतीक हैंमैं मानती हूँ कि हम अपनी राजभाषा हिन्दी के लिए कुछ नहीं कर सकते पर कम से कम १४ नवम्बर को Happy Hindi Day मनाकर हिन्दी को अपमानित तो न करें|


Wednesday 5 September 2012

तुम्हारा कोई एहसान नहीं


सलमान खान की फ़िल्म बॉडीगार्ड का एक डायलॉग “मुझ पर एक एहसान करना कि मुझ पर कोई एहसान न करना” सबको याद होगा| यह डायलॉग स्वयं में कितना अतार्किक और विरोधाभाषी है| खुद ही कह रहा है कि मुझ पर कोई एहसान न करके एक एहसान कर दो| जब से यह डायलॉग मार्केट में आया है कई लोगों ने इसे अपने जीवन का सूत्र बना लिया है| जब कोई दूसरा व्यक्ति उन लोगों की मदद करता है तो वह लोग मदद करने वाले के मुँह पर यह डायलॉग उठाकर मारते नज़र आते हैं और खुद को सम्पूर्ण आत्मनिर्भर बताते हैं पर वह लोग भूल जाते हैं कि वास्तविक जीवन और रजत पटल पर चित्रित जीवन में बहुत अंतर होता है|

कुछ लोग हमेशा यह दिखाना चाहते है कि उनके जीवन पर किसी का कोई एहसान नही है| उन्होंने सब कुछ अपने दम पर हासिल किया है और आगे अपने दम पर ही हासिल करेगें| उनकी उन्नति-अवनति, जीत-हार में किसी का कोई हाथ नहीं है| वह लोग किसी से मदद नहीं लेते| अपने काम के लिए किसी से सिफ़ारिश नहीं करते पर  वास्तविक जीवन में कोई ऐसा व्यक्ति है ही नहीं जिसने कभी किसी का एहसान न लिया हो और किसी पर कोई एहसान किया न हो| यह लोगों का भ्रम है कि वह सम्पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर हैं| उनके जीवन पर किसी का कोई उपकार नहीं है|

शायद लोग यह भूल जाते हैं कि हमारे जन्म पर हमारे माता पिता का एहसान होता है| माँ अपने गर्भ में हमें  आश्रय देकर जीवन को सुरक्षित करती है| माँ बिना किसी गिले-शिकवे के मल-मूत्र साफ़ करती है, हमें स्तनपान कराती है| एक पिता जीवन जीने के लिए हमारा धरातल तैयार करता है जिस पर खड़े होकर हम दंभ भरते हैं कि हमने अपने जीवन में कभी किसी का कोई एहसान नहीं लिया| हमारा शिक्षक, जो हमें जीवन का पाठ पढाता है| हमें अच्छे बुरे में अंतर करना सिखाता है| हम उसके सामने छाती चौड़ी करके बोलते हैं कि हमने सब अपने आप सीखा है और न जाने कितने रिश्ते हैं जो हमारे जीवन के संघर्ष में हर पल हमारे साथ खड़े रहते हैं पर वक्त बीत जाने पर हम उनके उपकारों को नकार देते हैं|

माँ-बाप से बढ़कर भी कोई है जो हमारे जीवन पर सबसे बड़ा एहसान करता है| उसके एहसान के ने बिना हम शायद जिन्दा ही नहीं रह सकते| वह और कोई नहीं हमारे चारों ओर की मनभावन प्रकृति है| हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रकृति, हम पर हर पल एहसान करती है| एक बार हमारे माता-पिता, हमारा शिक्षक हमें यह एहसास दिला सकते है कि उन्होंने हम पर एहसान किया है पर प्रकृति कभी भी हम पर अपना एहसान नहीं जताती है| हवा, पानी, सूर्य-चंद्रमा, यह धरती और न जाने कितनी ही प्राकृतिक चीज़ें हैं जो हम पर पल-पल एहसान करती हैं|

मनुष्य हो या जानवर सब कहीं न कहीं किसी के साथ ईर्ष्या, भेदभाव रखता है पर प्रकृति किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करती है| शायद ईश्वर ने प्रकृति को बुद्धि नहीं दी इसलिए वह हर पल निष्पक्ष रहती है| अगर हम जमीन में एक अच्छा बीज बोते हैं तो धरती हमें उस एक अच्छे बीज के बदले में कुंतल भर अच्छा अनाज देती है| लेकिन सड़ी-गली बीज बोने पर वह हमें सड़ा हुआ अनाज वापस नहीं करती| वह बिना शिकायत किए सड़ा हुआ बीज अपने अंदर समाहित करके खाद बनाती है और हमें पुन: अच्छी गुणवत्ता का अनाज देती है| मतलब हम जमीन में चाहें जैसा बीज बोएं वह हमें हमेशा अच्छा ही वापस करती है| पर हम ऐसे नहीं हैं... अगर हमसे कोई अच्छी बात करता है तो हम उससे कुछ नहीं कहते लेकिन जब कोई हमसे बुरी बात कहता है तो हम उसे झाड़ झाड़ दर्जन भर गालियाँ सुना देते हैं|

हम प्रकृति में उपलब्ध पानी को चाहें कितना भी गंदा क्यों न कर दें पर बरसात में प्रकृति हमें स्वच्छ पानी ही देती है| साँस द्वारा हम प्रकृति की स्वच्छ वायु को ग्रहण करते है और प्रकृति को अशुद्ध दूषित वायु वापस करते हैं, फिर भी प्रकृति हमसे कभी नहीं कहती कि हम उसकी वायु को साफ़ स्वच्छ करें| वह स्वयं अपने पेड़-पौधे रूपी सेवकों से हवा को निर्मल करवाती रहती है और हमें बिना शिकायत किए फिर से वापस देती रहती है| हमें प्रकृति से सीखना चाहिए कि कैसे लोगों पर एहसान करके भूल जाना  चाहिए परन्तु मनुष्यों के साथ ऐसा नहीं होता है, प्राय: जब वह उपकार करता है तब तो वह निस्वार्थ करता है परन्तु समय समय पर वह लोगों को अपने द्वारा किए गए उपकार को गिनाने ने नहीं चूकता है|

माना की मदद करने वाले अधिकतर लोग मदद करने के बाद अपने किए एहसानों को भूल जाते हैं पर हमें कभी भी उन एहसानों को नहीं भूलना चाहिए| हमें कभी भी उन व्यक्तियों का अपमान नहीं करना चाहिए, जिन्होंने हमें हमारे संघर्ष के दिनों में सहायता प्रदान की हो|

हमें स्वयं में और जानवरों में कुछ तो अंतर रखना ही चाहिए| जानवर अपने अविवेकी स्वभाव के चलते उसे ही सींग मारते हैं जो उसे भोजन देता है| जानवर कभी किसी का एहसान मानते हैं परन्तु इसका किसी को कोई अफ़सोस नहीं होता| अफ़सोस तो तब होता है जब विवेकी मनुष्य किसी का एहसानमंद होने की बज़ाय एहसानफ़रामोशी की सारी हदें पार करने लगता है| जब वह अपने बूढ़े माता-पिता की रोटियों की गिनती करता है| दुःख तो तब होता है जब वह प्रकृति का बराबर दोहन करने के बाद घमंड से कहता कि आज तक उसने किसी का एहसान नहीं लिया|

मेरी नज़र में किसी से एहसान लेना बुरी बात नहीं है, चाहें वह एहसान प्रकृति का हो या किसी व्यक्ति विशेष का; बस हमें एहसानफ़रामोश होने की बज़ाय हमेशा लोगों का एहसानमंद होना चाहिए| हमें अपनी उपलब्धि पर घमंड नहीं करना चाहिए क्योंकि पृथ्वी पर बिना सहभाहिता के जीवन संभव ही नहीं है|