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Monday 22 April 2013

हे राम !


राम नवमी के पावन अवसर पर भगवान श्रीराम का जन्मोत्सव, सम्पूर्ण भारत में पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाया गया| हमेशा की तरह पूरा वातावरण राममय था, चारों ओर राम नाम की गूँज थी परन्तु हैदराबाद का नज़ारा बिल्कुल अलग था| पूरे शहर में राम का बोलबाला था| चारों ओर राम के चित्र लगे हुए थे, यहाँ तक कि लोगों के वस्त्रों पर राम का नाम और प्रतिबिम्ब अंकित था| राम सदैव जनमानस के इष्टदेव हैं इसलिए हैदराबादी हिंदुओं का उनसे इस प्रकार जुड़ना सामान्य स्थिति प्रतीत हो रही है परन्तु यह बात जितनी सरल दिख रही है उतनी सामान्य है नहीं|

राम भक्तों का हैदराबादी सरज़मीं पर हिन्दू-शक्ति का प्रदर्शन मात्र राम भक्ति नहीं थी; यह प्रदर्शन अकबरुद्दीन ओवैसी के “राम विरोधी” घटिया भाषण से उत्पन्न रोष का प्रदर्शन था| प्राय: राम भक्त हिन्दू ऐसा प्रदर्शन नहीं करते हैं| भारत एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है और देश में प्रचलित सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त हुई हैं| ऐसे में किसी विशेष धर्म-सम्प्रदाय के लोगों को कोई अधिकार नहीं है कि वह हिन्दू धर्म के इष्टदेव राम का अपमान करें| जैसे मुस्लिम समाज अपने पैगम्बर मुहम्मद साहब की शान में हुई कोई गुस्ताख़ी बर्दाश्त नहीं करती ठीक वैसे ही हिन्दू जनमानस भी अपने इष्ट राम का अपमान सहन नहीं कर सकती|

इस शक्ति प्रदर्शन में राम भक्ति के साथ साथ राजनैतिक प्रभाव भी स्पष्टरूप से परिलक्षित हो रहा था| यह नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का आवाहन भी था| महीने भर पहले भी इलाहाबाद संगमतट पर राम मंदिर पर राजनीति खेलने के लिए अखाड़ा सजाया गया था| देश भर के लाखों साधु-संतों के बीच विहिप, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के शीर्षस्थ नेता कुम्भ के पावन पर्व पर राम के नाम पर देश की सत्ता का बाज़ार गर्म करने की पूरी कोशिश मे जुटे थे|

देश में राम के अलावा बहुत कुछ है जिस पर मुख्यधारा के नेताओं को अपनी राजनीति खेलनी चाहिए| आखिर राम के नाम पर इतनी सियासत क्यों होती है जबकि राम को कभी भी राजसत्ता का लोभ और मोह था ही नहीं| देश के राजनीतिज्ञ हमेशा अपने फ़ायदे के लिए राम और राम मंदिर पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते आ रहे हैं| राम जनसाधारण के राजा और स्वामी थे पर देश के नेताओं को राम सत्ता पाने का आसान सा ज़रिया नज़र आते है|

सन् १९९१ में भाजपा ने सत्ता पाने के लिए जो आग देश की राजनीति में लगाई थी वह आग आज भी देश को सीधे तौर पर जला रही है| भाजपा, विहिप और संघ अगर राम मंदिर बनवाने के लिए इतना ही कटिबद्ध है तो २० साल की राजनीति में वह मंदिर क्यों नहीं बनवा पाई है? सच तो यह है कि राम मंदिर किसी के लिये भी कुछ मायने नहीं रखता है| हर किसी के लिए राम मंदिर सिर्फ एक साधन है हिन्दू वोट पाने का, सत्ता में आकर अपना उल्लू सीधा करने का| राम के साथ आज से बीस साल पहले जो कुछ घटित हुआ था वही आज भी घटित हो रहा है| राम भक्ति भावना से कहीं ज़्यादा राजनैतिक हित के लिए याद किए जाते हैं| बार बार मुख्यधारा के नेता हिन्दू जनता को राम मंदिर का लॉलीपॉप थमा कर अपना वोट बैंक मजबूत करने की भरसक कोशिश करता है पर यह भूल जाता है कि सत्ता, राम के नाम पर वोट माँगने से नहीं बल्कि देश और जनता के लिए कुछ करने से मिलती है|

भारत अभी भी १९९१ वाली विचारधारा से निकल नहीं पाया है लेकिन उसे अब इतना मालूम है कि चाहें कोई भी राजनीतिक दल वादा करे या कोई परिषद/संघ आश्वासन दे... अयोध्या विवादिद स्थल पर कभी भी राम मंदिर नहीं बनने वाला| यह सारे हथकंडे सिर्फ सत्ता पाने के लिए अपनाए जा रहे हैं| १९९१ के दंगे के बाद भाजपा सीधे तौर पर गैर हिन्दू दल की अपनी राजनीतिक छवि साफ़ करती नज़र आती है और अब वह कभी खुलकर राम मंदिर पर कुछ बोलने से लगातार बचती है| अटलबिहारी सरकार ने चुनाव से पहले देश की हिन्दू जनता को राम मंदिर बनवाने का पूर्ण आश्वासन दिया था परन्तु सत्ता मे आते ही गठबंधन की मज़बूरी बता कर वह अपने वादे से मुकर गई|

राम नवमी को राम के चित्र के साथ मोदी का चित्र छपे होने का सिर्फ़ एक ही मतलब था कि आज दोबारा से  भाजपा राम के नाम पर वोट भुनाने की जुगत में है और पूरी तरह अपने मक़सद में कामयाब होती नज़र आ रही है, क्योंकि हिन्दू जनता को बुनियादी ज़रूरतों से कोई मतलब नहीं है| मोदी को राम मंदिर के बजाय बुनियादी जरूरतों पर ध्यान देना चाहिए और उन ज़रूरतों के नाम पर वोट मांगने चाहिए लेकिन बाजपेयी सरकार की तरह यह वादें झूठे नहीं होने चाहिए| यहाँ कांग्रेस की बात करना ही बेकार है क्योंकि वह किसके नाम पर वोट मांगती है और किसे कुर्सी पर बिठाती है कुछ पता ही नहीं चलता| २००० के चुनावों कांग्रेस ने सारे वोट राहुल के चेहरे का इस्तेमाल कर हथियाएं थे और बैठा दिया मनमोहन सिंह को, जिसको देखना तो दूर किसी ने कभी उनका नाम भी न सुना था| उसके बाद का चुनाव ईवीएम में सीधे तौर पर धांधली करके घसीट लिए और २०१४ में भी वह यही हथकंडा अपनाने वाली है... ऐसे में उससे निपटना अन्य पार्टियों और जनता के लिए एक टेढ़ी खीर होगी|

हिंदुओं के जैसा ही हाल मुसलमानी जनता का है, आज़ादी के बाद से वह शाही इमामों के इशारों पर लगातार नाचती आ रही है| शाही इमाम जिस पार्टी को वोट देने को कहता है, पूरी की पूरी मुस्लिम जनता भेड़चाल से चलते हुए उसी पार्टी के चुनाव-चिन्ह पर अँगूठा टिकाती है| शाही इमाम को जहाँ से खाना मिल जाता है वह मुस्लिम जनता का पूरा वोट उसके घर गिरवी रखवा देता है| मुस्लिम जनता; कांग्रेस और सपा के बीच होती रस्साकशी में ही उलझी हुई है| देश में बराबरी के दर्जे पर रहते हुए “अधिकार दो” की माँग करती रहती है|

जब भारत एक लोकतांत्रिक देश है तो ऐसे में शंखनाद करके और मीनारों पर चढ़कर “उसे वोट दो उसे वोट दो” क्यों चिल्लाया जा रहा है| इन शंखनाद करने वालों और शाही इमामों की वजह से सत्तारूढ़ पार्टी निरंकुश हुई जाती है| जनता का सरकार और उसके नुमाइदों पर कोई ज़ोर रह ही नहीं जाता| इन बिचौलियों की वज़ह से सत्तारूढ़ पार्टी हर दूसरे दिन घोटाले करती और डकार भी नहीं मारती|

आज भारत की मुख्य समस्या हिन्दू-मुस्लिम नहीं बल्कि शिक्षा, सुरक्षा, भ्रष्टाचार एवं बेरोजगारी है लेकिन देश के मुख्यधारा के नेता बुनियादी ज़रूरतों को धर्म के नाम पर दरकिनार कर अपना उल्लू सीधा कर रहे है और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि जनता सब कुछ जानते हुए भी “गाँधी के बंदरों” की भांति आचरण कर रही है
देश की मौजूदा हालत बिल्कुल भी अच्छी नहीं है... अंदर और बाहर दोनों मोर्चों पर सरकार पिछले १० सालों में पूर्णरूपेण असफ़ल रही है परन्तु विपक्ष में बैठी भाजपा हिजडों के जैसा बर्ताव कर रही है| क्योंकि उसे पता है कि इस बार अगर कांग्रेस ने वोटों में धांधली न की तो उसकी ही पार्टी सत्ता में आने वाली है| ऐसे में बेजा सिरदर्द क्यों लिया जाय|

मुझे लगता था कि राम के नाम पर हिन्दू जनता एक बार वोट दे सकती है, दो बार दे सकती है पर बार बार नहीं दे सकती परन्तु मुझे लगता है कि मै गलत हूँ...!!! भारत में धर्म के नाम पर सब बिकता है, चाहें वह ईमान हो या चाहें इन्सान हो| धर्म के नाम पर जनता अपनी आँखें अपने ही हाथों से फोड़ सकती है| कांग्रेस हो या भाजपा या फिर कोई और पार्टी ये धर्म के नाम पर वोट माँग कर हमेशा सत्ता पर काबिज़ रहेगीं| पार्टियाँ कुछ करें या न करें उन्हें राम और अल्लाह के नाम पर वोट मिलते रहेगें|

Saturday 13 April 2013

मधुबाला... एक इश्क़ एक जुनून

कलर्स चैनल के प्राईम टाइम पर आने वाला सीरियल "मधुबाला... एक इश्क़ एक जुनून" मैं रोज़ देखती हूँ, इस धारावाहिक की पटकथा, कलाकरों की संवाद अदायगी और अभिनय की जितनी तारीफ़ की जाय, उतना कम है| धारावाहिक के मुख्य पात्र "मधुबाला और ऋषभ कुंद्रा उर्फ आर.के." ने सीरियल को एक नया आयाम दिया है| यह धारावाहिक एक नारी के आत्मसम्मान और पुरुष के अंहकार का टकराव पर आधारित है| टीवी पर आने वाले अधिकतर धारावाहिकों में नारी, पुरुष के अंहकार के चलते स्वयं के आत्मसम्मान को नकार देती है या कमतर आँकती है परन्तु इस धारावाहिक में मधु का आत्मसम्मान हमेशा आर.के. के अहं से टकराता है पर टूटकर बिखरता नहीं है|

हालांकि जब इस सीरियल के प्रीव्यू प्रोमोशनल विज्ञापन आते थे तो मुझे बहुत कोफ़्त होती थी, मुझे लगता था... टीवी वाले न जाने कैसे कैसे सीरियल शुरू कर देते हैं, 'फुलवा" खत्म हुआ तो "मधुबाला" शुरू कर दिया| एक भी ढंग का सीरियल नहीं देते हैं| इसके शुरू होने से पहले ही मैंने इसको "घटिया" नाम दे दिया था और बाकी बची रही-सही कसर इसके शुरुवाती एपिसोड्स ने पूरी कर दी| मैंने इसको न देखने का पूरा पक्का इरादा कर लिया था लेकिन मेरे घर में सब मन से "मधुबाला" देख रहे थे और मैं मन मार कर, मजबूरी में देख रही थी.... कभी देखा और अक्सर नहीं देखा पर समय के साथ साथ मधुबाला की पटकथा सशक्त और संवाद दमदार होते गए और मुझे इस धारावाहिक में रोमांच आता गया| आज मैं इसको नियमित देख रही हूँ| 

"पहले  'आर.के. .... द सुपरस्टार' मधुबाला के मारे हुए एक थप्पड़  बदला लेने के लिए मधुबाला से अधूरी शादी करता है, उससे प्यार करने का झूठा नाटक करता है और जब मधुबाला सच में आर.के. की मुहब्बत में गिरफ़्त हो जाती है तो वह उसे छोड़ देता है| मधुबाला को अपनी पत्नी मानने से इनकार कर देता है और जब छोड़ी हुई मधुबाला की दोस्ती एक अन्य शख़्स "सुल्तान" से हो जाती है तो आर.के. के अंदर मरा हुआ पतिभाव जाग उठता है| अब मधु को फिर से पाना चाहता है... वह बार बार मधुबाला से एक ही प्रश्न करता है "क्या मधु आज भी सिर्फ़ उससे ही प्यार करती है" और मधु के हाँ कहते ही उसके चेहरे पर अजीब सी खुशी छा जाती है, अजीब-सा संतोष उसके पूरे असंतोष मन पर काबिज़ हो जाता है" यह थी अब तक की फिल्मांकित "मधुबाला... एक इश्क एक जुनून" की पटकथा|

अधिकतर धारावाहिक औरतों को नकारात्मक दृष्टिकोण से पेश करता है|
परन्तु पहली बार यह धारावाहिक बहुत बेहतर तरीके से पुरुषों के अंदर बसी असुरक्षा, अहं, कुंठा और स्वार्थ का चित्रण कर रहा है| पुरुष जब भी किसी औरत से प्रेम या प्रेम का झूठा नाटक भी करता है तो उसे वह औरत "कोरी" ही चाहिए| उसे आज २१वीं शताब्दी में भी बर्दाश्त नहीं होता है कि उसकी ज़िन्दगी में आने वाली औरत को पहले किसी दूसरे पुरुष ने छुआ हो और ज़िन्दगी से बाहर जाने के बाद उस औरत को कोई दूसरा आदमी छुए| पुरुष एक औरत के होते हुए भी हर औरत पर अपना हक़, अपनी मर्दानगी जता सकता है लेकिन यही काम अगर औरत करे तो उसके अहं को, उसके पुरुषत्व को ठेस लगती है| उस औरत को बज़ारू और वैश्या कहने लगता है|

पति शादी से पहले के सम्बन्ध बहुत गर्व से साथ पत्नी के साथ बताता  है, क्योंकि बहुत हद तक ये सम्बन्ध उसकी मर्दानगी(अक्सर कायरता क्योंकि मर्द होता तो उसी से शादी करता, जिससे प्यार या प्यार का नाटक किया) को दर्शाते हैं और उसे यह भी अच्छी तरह मालूम होता है कि उसकी पत्नी उसे छोड़कर नहीं जा सकती और अगर कभी छोड़ने की सोचे भी तो समाज, परिवार उसे छोड़ने नहीं देगा| 

परन्तु अगर कोई लड़की अपने प्रेम और प्रेमी की बातें पति को बता दे... तो पति इसे हज़म नहीं कर पाता है| उसे स्वीकर नहीं कर पाता है| हर वक्त उसे ताने मारता है और शक़ करता है| उसे लगता है उसे "जूठन" मिली है| पति सारी ज़िन्दगी पत्नी को अपना नही पाता है| उस पर बदचलन होने का ठप्पा भी लगा देता है| गाहे-बगाहे पत्नी की बेइज्जती करता फिरता है और पत्नी को बुरा मानने का अधिकार भी नही देता है परन्तु पत्नी कभी भी पति का अपमान या विरोध नहीं कर सकती... क्योंकि पति परमेश्वर है, कर्ता-धर्ता है| 

पुरुष हमेशा दोहरी मानसिकता के साथ जीते हैं| स्वयं के लिए सात खून माफ़ पर....औरत के लिए, नज़र उठा कर देखना भी गुनाह है| आज के परिवेश में भी स्त्री-पुरुष बराबर नहीं है... औरत आज भी दोयम दर्ज़े पर खड़ी है  और शायद ही भविष्य में कभी उसे  पुरुष के बराबर का दर्ज़ा मिले| पुरुष कैसा भी हो वह स्वीकार्य है पर स्त्री का सती-सावित्री होना अपने समाज की पहली और आख़िरी प्राथमिकता है|

Thursday 4 April 2013

अंधकार में छुपा प्रकाश


अंधकार का नाम या वर्णन आते ही हमारा मन-मस्तिष्क एक अजीब से कालेपन से जूझने लगता है और हम इस स्याह परिदृश्य से बाहर निकलने के लिए स्वयं से जद्दोजहद करने लगते है| हर किसी को अंधकार से ईर्ष्या है, हम में से कोई भी अंधकार में नहीं रहना चाहता है| सबको प्रकाश चाहिए, उजाला चाहिए| हमारे देश में अनेक महापुरुष हुए हैं उनका मानना है कि प्रकाश ही सत्य है, जीवन है, जीवन का आधार और उद्देश्य है, मोक्ष है| प्रत्येक मनुष्य को अपना सारा जीवन सत्य की खोज में व्यतीत करना चाहिए| चाहें गौतम बुद्ध हों या स्वामी विवेकानंद, नानकदेव जी हों या सम्राट अशोक सबने अपना जीवन प्रकाश की खोज में लगा दिया और बहुत हद तक उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर भी मिले, उन्हें सत्य के दर्शन हुए, प्रकाश को समीप से पहचाना| परन्तु किसी ने भी अँधेरे के आस्तित्व पर कभी प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया|

अंधकार तो सम्पूर्ण ब्रह्मांड में युगों युगों से व्याप्त है, हर उस जगह उसका बसेरा है जहाँ प्रकाश की पहुँच नहीं है| अंधकार हमारे वातावरण, हमारे अंतस में है| जब चारों ओर अंधकार का अधिकार है तो क्यों हम उसे पहचानने से मुकर रहे हैं| क्यों उसके आस्तित्व पर अंगुली उठा रहे हैं| अंधकार की विशेषताएँ क्यों नहीं देखते हैं| हर खोटी चीज़ में अच्छी चीज़ के समान ही गुण होते है, हमें बस अपने विश्लेषण का दृष्टिकोण बदलना होगा| अंधकार से हम इतना डरते क्यों करते हैं? काले से इतनी नफ़रत क्यों करते हैं... जबकि काला तो अपना कन्हईयाँ भी है| यह अंधकार न होता तो शायद कंस के बंधन से कृष्ण को मुक्त करना असम्भव था| यमुना भी काली होते हुए जीवनदायनी है| चाँद-चाँदनी का मिलन भी रात के घनेरे में होता है, जो जीवन का मूलाधार है| भौंरा भी काला है पर कुमुदिनियों का प्राण-प्यारा है|

अक्सर लोग कहते हैं कि कभी प्रकाश और अंधकार के मध्य युद्ध हुआ था और प्रकाश जीत गया, तभी से प्रकाश  सूर्य के रथ पर सवार होकर अंधकार का सर्वनाश करने के लिए निकलता है और अंधकार अपना आस्तित्व बचाए रखने के लिए कोनें, कोटरों, झुरमुटों में छुप जाता है परन्तु मुझे तो यह कथा कपोलकल्पित लगती है क्योंकि जब ब अंधकार आता है तब प्रकाश की कोई किरण दूर दूर तक नज़र नहीं आती है| चारों तरफ़ घनेरा होता| अँधेरा तो प्रकाश को कोनों कोनों से खदेड़ देता है| जबकि प्रकाश को मालूम होता है कि अँधेरा कोटरों में छुपा है पर उसकी हिम्मत ही नहीं होती कि वह अंधकार से से दो-दो हाथ करने के लिए कोटरों में जा सके|

वैज्ञानिक तथ्यों का आलम्बन लें या व्यवहारिक कृत्यों का, दोनों ही सिद्ध करते हैं कि प्रकाश को स्वयं के विस्तार के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है, वह एक सीधी दिशा में ही चलता है, मार्ग में अवरोध आ जाने पर उसका प्रसार-प्रचार अवरुद्ध हो जाता है| प्रकाश को अपना आस्तित्व बचाए रखने के लिए सूर्य और दीये का सहारा चाहिए जबकि अंधकार अपनी मनमानी गति से चहुँदिश बढ़ता है क्योंकि वह आत्मनिर्भर है, मार्ग में हजारों अवरोधों के बावज़ूद दोनों तरफ़ समानरूप से स्याह और सघन रहता हैं| बादल, हवा एवं अन्य कारक प्रकाश के साथ जैसा छल करते हैं वैसा छल वो अंधकार के साथ नहीं कर पाते क्योंकि अंधकार आत्मनिर्भर है|

विश्व के महानतम महापुरुषों ने कभी भी अँधेरे के आस्तित्व को नहीं नकारा बल्कि उन लोगों ने अपने अंतस और बाह्य मौज़ूद अंधकार को पहचाना| उनकों मालूम था कि सृष्टि से अँधकार का समूल नाश नहीं किया जा सकता| वह भी प्रकाश की तरह ब्रम्हांड का अकाट्य सत्य है, इसलिए उसको मिटाने का नहीं वरन कम करने का प्रयास किया| उन्होंने अथक प्रयास किया, अँधकार को जानने के लिए, पहचानने के लिए| उसकी थाह पाने के लिए उसकी गहराई में उतरे और जितना वो गहराई में जाते गए, उन्हें उनका ही विशाल प्रकाश-द्वार मिलता गया क्योंकि प्रकाश-द्वार, अंधकार के मुँहाने पर ही खुलता है|

अंधकार और प्रकाश एक सिक्के के ही विपरीत पहलू हैं| सिक्के के सिर्फ़ एक पहलू का कलेवा करके उसके सहारे आगे नहीं बढा जा सकता| हम जितनी तत्परता से प्रकाश की खोज कर रहें हैं, उतनी ही उत्सुकता से हमें स्वयं को अंधकार में विलीन करना होगा| कोई भी मनुष्य अंधकार को नहीं जानना चाहता, शायद वह काला है, सघन है, घोर है परन्तु हम यह कैसे भूल सकते है कि प्रकाश की भांति ही अँधकार भी पृथ्वी का अस्तित्व बनाए रखने में सराहनीय भूमिका अदा कर रहा है| हमें अंधकार की थाह पानी ही होगी, उसकी गहराई नापनी होगी| प्रकाश के आस्तित्व को पाने के लिए अँधेरे को आत्मसात करना ही होगा| बिना अंधकार को जाने हम कभी भी प्रकाश को प्राप्त नहीं कर सकते|