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Tuesday, 29 April 2014

औरत और बाज़ारवाद

स्त्री ईश्वर की एक अनुपम कृति है... अनुपम इसलिए क्योंकि स्त्री ही सृष्टि की प्रथम संचालिका है| निसंदेह पुरुष सृष्टि के विस्तारण एवं कियान्वयन का अनिवार्य एवं आवश्यक घटक है परन्तु स्त्री जीवन-स्रोत है| समय के साथ साथ औरतों की स्थितियों में बहुत सुधार हुआ है, जबकि पहले औरतों की ज़िन्दगी नरकीय थी| औरतों को ऐसे दूषित एवं श्रापित जीवन से निकालने के लिए अनेक समाज-सुधारकों ने जी तोड़ मेहनत की हैं| स्त्रियों के सम्मान  के लिए मदनमोहन मालवीयराजा राममोहन रायईश्वरचन्द्र विद्यासागरलार्ड विलियम बैंटिक, एनी बेसेंट आदि समाज-सुधारकों ने समाज और उसमें प्रचलित कुप्रथाओं से एक सशक्त लड़ाई लड़ी और जिसका परिणाम है कि आज उत्साह और जोश से लबरेज़  औरत विकास के पथ पर पुरुष के साथ बराबर चल रही है, दौड़ रही है... अपने पैरों पर खड़ी है| उसमें कुछ कर गुज़रने की, समाज में अपनी पहचान पाने की ललक और लालसा कूट कूट कर भर गयी हैवह अपने आत्म-सम्मान के लिए लड़ना सीख गयी है, आँखों में आँखें डालकर अपने हित-अहित के लिए बोलना सीख गई है|

समाज सुधारकों ने अपने अथक प्रयासों से औरतों में तो आत्मविश्वास ऊपर तक लबालब भर दिया है लेकिन पुरुषों की सोच और व्यवहार में परिवर्तन कर पाने में असमर्थ रहे, पुरुष पहले की तरह आज भी औरत को मात्र ज़िस्म ही समझता है| हाँ कभी-कभार औरत के साथ रहते-रहते किसी पुरुष को उससे प्रेम हो जाता है वरना औरत जहाँ से चली थी वही पर खड़ी है|  आज भी शिक्षित समाज में स्त्रियों की पहचान उनके काम और कीर्ति की बज़ाय, जननांगों द्वारा ही की जाती है|  शिक्षित एवं जागरूक पुरुष भी उसे मात्र एक जोड़ी स्तन और एक योनि के दायरे में बाँध कर परिभाषित करता है| पुरुष, औरत को योनि और स्तन से परे सोच पाने में अभी तक सक्षम नहीं हो पाया| पुरुष, औरत के साथ प्रेम या मित्रता के रिश्ते की बज़ाय मात्र ज़िस्म का रिश्ता चाहता हैवह औरत के हृदय की बज़ाय उसकी योनि की गहराई नापना चाहता है|

आज पहले की तुलना में समाज शिक्षित है, जागरूक है फिर भी औरतों के साथ अमर्यादित व्यवहार हो रहा है| नित नये तरीकों से उनका शोषण किया जा रहा है| वर्तमान समय में इसका एक मुख्य कारण बढ़ता बाज़ारवाद भी है| बाज़ारवाद और उसमें होने वाली गला काट प्रतिस्पर्धायों ने औरतों को एक बार फिर से मनोरंजन का आसान साधन बना कर पेश कर दिया है| लेकिन इस बार औरतों भी अपनी बर्बादी में बराबर की ज़िम्मेदार एवं भागीदार हैं| वे स्वयं “सेक्स सिम्बल” बनना चाह रही हैं| पहले औरतें पुरुषों के सामान ही अपने वक्षस्थल को नहीं ढकती थी लेकिन उस समय स्त्रियों के स्तन ममत्व का प्रतीक थे, वक्षस्थल को सम्मानित दृष्टि से देखा जाता था परन्तु आज वक्षस्थल को तो छोड़िये, सम्पूर्ण नारी को सिर्फ़ काम-भावना से ही देखा जाता है और औरतें भी स्वयं को “सेक्सी”, “सेक्स बम” या “सेक्स सिम्बल” कहलवाने पर गौरवान्वित महसूस करती है|

टी.वी. पर आने वाले दस में से नौ विज्ञापन, औरतों को बाज़ार में बिकने वाली चीज़ों की तरह पेश करती नज़र आती है| साबुन, डियो, परफ़्यूम, मोबाइल, मंजन, कार, बाइक, टॉफ़ी आदि दैनिक उपयोग की चीज़ों के इस्तेमाल में “सेक्स और औरतों” की कोई ज़रूरत ही नहीं है फिर भी इन उत्पादों के विज्ञापनों में “सेक्स अपील” को प्रमुखता से रेखांकित किया जा रहा हैं| सेनेटरी नैपकीन, ब्रा-पैंटी, कंडोम और गर्भनिरोधक गोलियों के विज्ञापन तो “प्राइम टाइम” पर थोक के भाव में दिखाते हैं| सेनेटरी नैप्कीनों के विज्ञापनों में कैमरा का एंगल ऐसा रहता है कि आप अभिनेत्री के नितम्बों के अलावा कुछ और देख ही नहीं सकते और ब्रा के विज्ञापनों में लड़कियां ब्रा और अपने वक्षों से खेलती नज़र आती हैं और पास खड़ा लड़का वक्ष को काम-भावना से देख रहा होता है| कंडोम के विज्ञापनों में औरतों की कोई ज़रूरत ही नहीं है लेकिन उत्पादक कम्पनियों ने अपने उत्पाद को बेचने के लिए औरतों के पसंदीदा “फ़्लेवर”, “संतुष्टि” और “भावनाओं” को अपना हथियार बना लिया| वही एक नामी कम्पनी की 24 घंटे में काम करने वाली कॉंन्ट्रासेप्टिव पिल्स का विज्ञापन टी.वी. पर आते ही गोलियों की बिक्रीदर अचानक बढ़ गयी, क्योंकि कम्पनी ने यौन-क्रिया के तुरंत बाद चुटकी बजाते ही अनचाहें गर्भ से छुटकारा पाने का आसान और सस्ता रास्ता दे दिया| कंडोम और कॉंन्ट्रासेप्टिव पिल्स के विज्ञापनों को देखकर ऐसा लगता है, जैसे किसी के साथ कभी भी रोमांच और मनोरंजन के लिए पूरी आज़ादी से यौन-सम्बन्ध बनाये जा सकते हैं| सेक्स, एक प्राकृतिक एवं आवश्यक क्रिया न होकर मनोरंजन और रोमांच का एक अन्य नया आयाम है| जबकि कंडोम और कॉंन्ट्रासेप्टिव पिल्स का मुख्य काम जनसंख्या वृद्धि की रोकथाम है| लेकिन बाज़ारवाद में आगे निकलने की होड़ ने हर चीज़ को सेक्स और औरत से जोड़ दिया है|

अभिनेत्रियों में तो मानो जैसे होड़ लगी है कि सबसे पहले पर्दे पर नंगी कौन होगी| पहले फिल्मों में चुम्बन और सुहागरात के दृश्यों को वैकल्पिक माध्यम से दर्शाते थे वही आज हर हीरो-हिरोइन एक दूसरे के मुंह में मुंह डाले होंठ चबाते नज़र आते हैं| सेक्स के बढ़ते बाज़ारवाद की वज़ह से हर फ़िल्म की पटकथा में सेक्स मुख्य विषय बन गया है| “आज ब्लू है पानी पानी और ये दुनियां पीत्तल दी” के गानों में औरत और उसके ज़िस्म को जिस तरह समाज में परोसा गया है, देखकर किसी बड़े विनाश का संकेत लगता है| बाज़ार में रोज़ बढ़ते “पोर्न फ़िल्मों और पोर्न साहित्यों” से न जाने अभी कितने और “निर्भया काण्ड” होने बाकी हैं|

बाज़ारवाद ने औरतों से उनकी हया, अदा, नज़ाकत जैसे प्राकृतिक सौन्दर्य छीन लिए हैं और सेक्स का नक़ाब लगा दिया है| अगर समाज अभी नहीं  जागा तो विचारकों और सुधारकों के सारे किये कराए पर पानी फिर जाएगा| औरतें पहले से भी ज़्यादा दुष्कर परिस्थितियों में होगी, जहाँ से उन्हें निकाल पाना बेहद मुश्किल होगा| बाज़ार उत्पादों को बेचने के लिए बनाये गये है न कि औरतों के ज़िस्मों की नुमाइश के लिए| सेंसरबोर्ड, पुलिस, नेता, अभिनेता या साधारण आदमी कोई भी औरत के ज़िस्म की होती यूँ नुमाइश की रोक के लिए कदम नहीं उठा रहा है... यहाँ तक स्वयं औरत ही कुछ नहीं कर रही है| वह स्वयं अपने कपड़े भरी महफ़िल में उतारने के लिए उतारू हो रही हैं| अगर ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन ज़्यादा दूर नहीं जब औरत फिर से बाज़ार में बिकने के लिए खड़ी होगी और तब शायद कोई राजा राममोहन राय या लार्ड विलियम बैंटिक नहीं आयेगें, उसे फ़िर से दलदल से निकाने क्योंकि तब हर कोई औरत को बाज़ार की एक वस्तु मानने के आदी हो चुके होगें|




Tuesday, 22 April 2014

क्यों टांग अड़ाए काज़ी ?

पिछले 45 सालों से अपने वैवाहिक जीवन पर हमेशा चुप रहने वाले नरेंद्र मोदी ने अचानक जशोदाबेन को अपनी पत्नी स्वीकार कर लिया| नरेंद्र मोदी की इस स्वीकरोक्ति पर राजनीति में बवाल तो मचना तय ही था और पूरे शबाब के साथ बवाल मचा भी| अभी तक अपनी शादी पर चुप रहने वाले नरेंद्र मोदी ने जशोदाबेन का नाम एकाएक सार्वजनिक कर दिया| तीन बार मुख्यमंत्री नामांकन पत्र में मोदी ने एक बार भी अपनी पत्नी का नाम नहीं भरा| कांग्रेसियों द्वारा नपुंसक कहे जाने पर भी मोदी के अपने वैवाहिक जीवन को सार्वजनिक नहीं किया लेकिन प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के नामांकन में मोदी ने जशोदाबेन नाम का पत्नी के स्थान पर भर कर अनेकों विवादों को जन्म दे दिया| 

अनेक नारीवादियों ने मोदी को खूब-खरी खोटी सुनाई| कांग्रेसियों की प्रतिकियाएं देखकर तो ऐसा लग रहा था मानो उनके हाथ बटेर लग गई हो और वो सब मिल कर या तो मोदी की पुन: शादी जशोदाबेन से करवा कर उनकी बरसों से उजड़ी गृहस्थी फिर बसा देगें... या फिर नारी के अपमान में मोदी को फाँसी देगें|
इतना हो-हल्ला होने पर भी मोदी और जशोदाबेन, किसी ने भी एक बार भी सामने आकर अपने वैवाहिक जीवन पर कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया और शायद इसकी ज़रूरत भी नहीं है| जो तथ्य मोदी-जशोदाबेन प्रकरण में सामने आयें हैं वह सिर्फ़ इलेक्ट्रानिक एवं प्रिंट मीडिया की कृपा मात्र है||

मोदी-जशोदाबेन प्रकरण से एक बात फिर से स्पष्ट तौर पर सामने आई कि लोगों को  अपनी पत्नी ज़्यादा और दूसरों की बीवियों की फ़िक्र होती है| असम के मुख्यमंत्री तरुण गगोई ने मोदी की पत्नी को एक सच्ची सन्यासिन बता कर उनके लिए "भारत रत्न" की मांग कर डाली| वही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय ने मोदी को नारी विरोधी कह कर उनका बहिष्कार करने की बात की तो कपिल सिब्बल ने इसकी चुनाव आयोग से शिकायत कर दी|

मोदी के प्रधानमंत्री बनने और न बनने में मेरी अपनी कोई निज़ी दिलचस्पी नहीं हैं और न मैं मोदी की भक्त हूँ और न समर्थक हूँ फिर भी एक बात उन लोगों से पूछना चाहती हूँ... जो मोदी को जशोदाबेन-प्रकरण में घेर रहें हैं... क्या आप सभी अपने निज़ी जीवन में स्त्री-मामले में पाक़-साफ़ हैं? जितनी फ़िक्र आपको मोदी की पत्नी की हो रही है क्या उसकी आधी भी कभी अपनी बीवी की चिंता की है? क्या पत्नी के सम्मान में कभी खड़े हुए हैं आप?  या पत्नी के अलावा आपका कोई चक्कर नहीं चला है ? 

खैर! मेरी मंशा किसी के निज़ी जीवन को सार्वजनिक पटल पर छीछालेदर करने की बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि प्रत्येक इंसान की अपनी कुछ निज़ी ज़िन्दगी होती है जिसे वो हमेशा अपने आप तक ही सीमित करना चाहता है और हमें प्रत्येक व्यक्ति की निजता का पूरा सम्मान भी करना चाहिए| हम राजनेता हो, अभिनेता हो या आम जनता; हमारी निजता पर सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारा अधिकार है कि हम अपने जीवन को किस हद तक सार्वजनिक करना चाहते हैं| किसी के निज़ी मामलों में ज़बरन हस्तक्षेप, उसके मौलिक अधिकारों का हनन है|

मेरा नज़रिया जशोदाबेन मामले में, नारीवादी चिंतकों से थोड़ा-सा अलग है... लोगों को लग रहा है कि मोदी ने अपनी पत्नी के साथ जो किया है वह बहुत ही गलत किया| इसके लिए उन्हें समाज और अपनी पत्नी से सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगनी चाहिए और जशोदाबेन को सिर्फ कागज़ों में ही नहीं बल्कि अपने जीवन में भी पत्नी का स्थान देना चाहिए... 
परन्तु यदि आप स्पष्ट एवं दूरगामी दृष्टि से देखें तो आपको भी लगेगा कि जो मोदी ने किया वो एक दम सही था, जिस रिश्ते को जीना नहीं चाहते थे, जिसे वो निभा पाने में स्वयं को असमर्थ समझ रहे थे... उन्होंने उस रिश्ते को उसके शिशुकाल में भी त्याग दिया और अपनी पत्नी को उस बंधन से मुक्त कर दिया और फिर कभी वो उस रिश्ते की तरफ़ रुख नहीं किया| ग़लत तो तब होता जब मोदी जशोदाबेन के साथ रह कर उन्हें पत्नी का दर्जा नहीं देते| उन्हें मारते पीटते और घर के किसी कोने में सामान की तरह रख छोड़ते| लेकिन उन दोनों के बीच ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि दोनों लोग किसी समझौते के तहत ही अलग हुए होगें क्योंकि यदि मोदी परस्पर सहमति के बिना अलग हुए होते तो मोदी के मुख्यमंत्री बनते ही जशोदाबेन और उनका परिवार मोदी पर आक्षेप लगा सकता था या कभी उनसे मिलने आ सकता था| 
लेकिन न तो कभी मोदी ने उनका किसी भी तरह का "सो कॉल्ड फ़ायदा" उठाया और न जशोदाबेन कभी उनसे मिलीं| 

जैसे प्रेम के लिए मात्र हृदय के समर्पण की कल्पना की गयी है... नाम के आडम्बर की नहीं ठीक वैसे अलगाव के लिए भी हृदय का समर्पण चाहिए... न कि किसी कागज़ के टुकड़े पर हस्ताक्षर की !!!


मेरी नाराज़गी उन लोगों से है जो जशोदाबेन को मोदी के पास लौट जाने की सलाह दे रहे हैं और बार बार अपने लेख और कथन में उन्हें श्रीमती मोदी कह कर सम्बोधित कर रहे हैं| जो रिश्ता उन दोनों ने आज से लगभग 45 साल पहले खत्म कर दिया था क्यों वे उस रिश्ते में वापस जाएं ? मोदी देश के भावी प्रधानमंत्री बनने वाले है सिर्फ़ इसलिए ? लेकिन यही मोदी अगर ग़लत रास्ते पर चले जाते तो क्या फिर भी आप जशोदाबेन को पति के पास लौट जाने की सलाह देते ? 
शायद यही सलाह देते क्योंकि आज भी भारत में एक औरत की पहचान मात्र उसके पिता-पति-पुत्र से ही की जाती है?  मोदी द्वारा जशोदाबेन को पत्नी स्वीकार करना मात्र एक क़ानूनी औपचरिकता है, इसका यह मतलब तो कतई नहीं निकलता अब उनकी अपनी निज़ी पहचान खत्म हो गयी| अगर उन्हें मोदी के पास वापस जाना ही था तो वो आज से 10 साल पहले चली जाती जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे|  

हमें मोदी और जशोदाबेन के फ़ैसले का सम्मान करना चाहिए, जिस रिश्ते को वो निभाना नहीं चाहते थे उसको उन दोनों ने जिया भी नहीं| परस्पर प्रेम न होते हुए भी अक्सर लोग शादी निभाने को मज़बूर रहते हैं और जिससे प्रेम करते हैं उसे भूल जाने की कोशिश में लगे रहते हैं... ऐसे जीवन को जीना मात्र एक सज़ा के अलावा कुछ नहीं है|

हम इतना पढ़-लिखकर, खुले विचारों के होकर भी अपने फ़ैसले नहीं ले पाते हैं और अगर कोई फ़ैसला करते भी हैं तो अक्सर मुकर जाते हैं| 
प्रेम में किसी के धोखा देने या अलग हो जाने पर हम टूट जाते हैं... अपने जीवन का उद्देश्य ही खो बैठते है, कभी कभी तो आत्महत्या जैसे क़दम तक उठा कर जीवन ही खत्म कर देते हैं लेकिन जशोदाबेन ने ऐसा कुछ भी नहीं किया... उन्होंने ख़ुद को जीना सिखाया, अपने पैरों पर खड़ी हुई और पूरे आत्मसम्मान के साथ अपना जीवन जी रही हैं... उन्हें अपने नाम के पीछे की के नाम की ज़रूरत नहीं है| 

नारीवादी होने का मतलब सिर्फ़ हर मोड़ पर पुरुष को ग़लत ठहराना नहीं है... बल्कि औरतों के द्वारा लिए गये सही फ़ैसले का सम्मान करना है|

Friday, 18 April 2014

हर किसी की भौजाई- नगमा

चुनावी रैलियों में मेरठ से कांग्रेस प्रत्याशी अभिनेत्री नगमा के साथ हो रही रोज़ाना छेड़छाड़ अपने आप में एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है| कभी कोई वरिष्ठ नेता उन्हें अपने गले से लगा लेता है तो कोई नेता, चुनावी मुद्दों को छोड़ कर सरे-आम  मंच से उनकी ख़ूबसूरती में शे'र कहने से बाज़ नहीं आ रहा है| अब तो आलम यह कि टुच्चे कार्यकर्ता भी नगमा पर टिप्पणी कर रहे हैं और उनका शरीर को छूने के फ़िराक में रहते हैं| जिसके चलते कई बार नगमा चुनावी रैलियों में बिना कुछ कहे ही मंच से चली जा रही है|

नगमा की सुरक्षा को लेकर यह बहुत ही संवेदनशील मामला है; जिस पर कांग्रेस को तुरंत कोई ठोस कदम उठाना चाहिए| अगर कांग्रेस अपनी महिला प्रत्याशी की सुरक्षा को लेकर चिंतित नहीं है तो चुनाव आयोग एवं महिला आयोग को यह मामला स्वत: अपने संज्ञान में लेकर दोषी प्रत्याशियों और कार्यकर्ताओं पर कार्यवाही करनी चाहिए|

नगमा की हालत तो गाँव में ब्याह कर आई उस नई-नवेली दुल्हन जैसी हो गयी है, जिसे जवान से लेकर गाँव का हर बुढ्ढा अपनी भौजाई बता रहा है और सब में "कौन पहले रंग लगाएगा इस होली में" की होड़ मची पड़ी है|

नगमा के साथ साथ अमेठी से बीजेपी प्रत्याशी स्मृति ईरानीआरएलडी नेता जया प्रदा  ने भी छेड़छाड़ एवं अश्लील हरकतों का सामना किया है| उधर विदर्भ के अमरावती से एनसीपी की प्रत्याशी दक्षिण अभिनेत्री नवनीत कौर राणा भी अशोभनीय हरकतों की शिकार हो चुकी हैं|

इन अभिनेत्री नेताओं को आम जनता के अलावा ससंद में बैठे नेताओं की बेज़ा हरकतों और अपशब्दों का सामना भी करना पड़ता है|
दो साल पहले एक टी.वी. डिबेट के दौरान कांग्रेसी नेता संजय निरूपम में बीजेपी नेत्री स्मृति ईरानी पर सरेआम "ठुमके वाली" बोलकर उनका अपमान किया था| वहीं 2009 में सपा नेता जया प्रदा ने अपनी ही पार्टी के आज़म खान पर उनकी अश्लील फोटों रामपुर में बंटवाने का आरोप लगाया था| 2013 में झारखंड के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद प्रदीप बालमुचू ने ससंद में जया बच्चन की  तस्वीर मोबाइल से ली थी। जो श्रीमती बच्चन की आपत्ति के बाद प्रदीप ने अपने मोबाइल से हटा दी थी| अभिनेत्री रेखा के राज्यसभा शपथ समारोह के दौरान जया बच्चन की तस्वीर बार बार टी.वी. पर दिखाई जाने पर भी श्रीमती बच्चन ने टी.वी. मीडिया की शिकायत की और रेखा के बाबत प्रश्न पूछें जाने पर पत्रकारों को फटकार लगाई थी|

ये तो कुछ बानगी हैं... वरना अभिनेत्री-नेताओं पर की जाने वाली अशोभनीय टिप्पणीयों की शर्मनाक फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी हैअभिनेत्री से नेत्री बनी इन महिला प्रत्याशियों को चुनावी सरगर्मियों में एक तो अपनी पार्टी को जिताने का दबाव रहता है वहीं दूसरी तरफ़ अपनी सुरक्षा एवं प्रतिष्ठा की सिरदर्दी है

आम लोगों की राय इन अभिनेत्रियों के बारे में कभी अच्छी नहीं रही है| समाज इन्हें अच्छा और चरित्रवान नहीं समझता ; अक्सर लोगों को लगता है कि इन फ़िल्मी लड़कियों के साथ कुछ भी किया जा सकता है|  जब ये हीरोइनें फ़िल्मों में हीरो के साथ अंतरंग दृष्य कर सकती है, तो हमारे मात्र छूने और कुछ अश्लील बोल देनेसे इन्हें आपत्ति नहीं होगी ! इसलिए अक्सर भीड़ में इन अभिनेत्रियों को अशोभनीय परिस्थितियों एवं टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है|

दूसरी तरफ़ अगर कोई महिला प्रत्याशी या प्रचारक किसी बड़े राजनीतिक घराने से चुनावी मैदान में आती है तो आम जनता के साथ साथ कार्यकर्ता एवं विपक्षी दल भी उस महिला उम्मीदवार को इज्ज़त देता है| किसी की हिम्मत नहीं होती इन महिला उम्मीदवार को छूने या कुछ कहने की या उनकी सुन्दरता में क़सीदे पढने की| प्रियंका गांधी, राबड़ी देवी, सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे आदि पारंपारिक रसूख़ वाली नेताओं के साथ किसी भी अप्रिय घटना के बारे में कोई सोच तक नहीं सकता

यह एक गम्भीर मसला है किसी भी महिला की सुरक्षा, निजिता और अस्मिता को लेकर| महिला जासूसी प्रकरण को इतना जनता में उछालने वाले कांग्रेसी नेताओं को कम से कम अपनी महिला प्रत्याशी नगमा की सुरक्षा पर चिंतित ज़रूर होना चाहिए एवं अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को काबू में रखना चाहिए

दूसरी तरफ़ आम लोगों को समझना होगा फ़िल्मों में काम करने के दौरान हीरो के साथ अंतरंग सीन करना अभिनेत्रियों के काम का एक हिस्सा है| जिसको उनके चरित्र एवं सामाजिक जीवन से जोड़ कर नहीं देखना चाहिए| वो भी आम इंसान है, उनकों भी तकलीफ़, दर्द होता है| जैसे हमारी बहन-बेटियाँ हर पुरुष के लिए उपभोग एवं उपयोग का सामान नहीं है ठीक वैसे हिरोइनों का भी सामाजिक जीवन है| वह भी हर आदमी के साथ "सोने की  चीज़" नहीं हैं


सत्ता में "सेलीब्रिटीज़"

१६वीं लोकसभा में लगभग सौ से ज़्यादा "सेलिब्रिटी" लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं| वैसे तो हर चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियाँ मोटी रक़म ख़र्च करके "स्टार प्रचारकों" को अपने प्रत्याशी को जिताने के लिए मैदान में उतारती है लेकिन कभी कभी राजनीतिक पार्टियाँ अपने इन "स्टार प्रचारकों" के चेहरों और लोकप्रियता को वोट में बदलने के लिए इन स्टार प्रचारकों को टिकट बाँट देती हैं| इस बार भी हर पार्टी ने "सेलीब्रिटीज़" के चेहरों को भुनाने का पूरा मन बना लिया है|  अगर विश्लेष्ण किया जाय तो कई बार ये "स्टार प्रत्याशी" बाज़ी मार ले जाते हैं|

जहां बीजेपी से हेमा मालिनी, स्मृति ईरानी, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, किरन खेर आदि मैदान में है तो दूसरी तरफ़ कांग्रेस ने नगमा, मोहम्मद कैफ़, नंदन नीलेकणी, रवि किशन आदि "सेलिब्रिटीज़" को लोकसभा का टिकट थमा दिया है| अगर बात की जाए तो अभी अभी पैदा हुई आम आदमी पार्टी की तो वह भी "सेलीब्रिटीज़" का मोह छोड़ने में नाकाम रही और गुल पनाग, ज़ावेद ज़ाफरी को टिकट दे कर उनकी लोकप्रियता भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती| वही बीजेपी से टिकट न मिलने पर राखी सावंत ने एक नई पार्टी ही बना डाली| 

अक्सर राजनीतिक पार्टियाँ अपने "स्टार प्रचारकों" को ऐसे क्षेत्र से खड़ा करती हैं... जहाँ से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता| उन क्षेत्रों की इतिहास-भूगोल का उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता और न उन्हें वहां की मूल ज़रूरतें और समस्याएं मालूम होती हैं,  फिर भी अधिकतर "स्टार प्रत्याशी" इन क्षेत्रों से जीत जाते है लेकिन जीत का सेहरा बँधते ही प्रत्याशी अपने निर्वाचित क्षेत्र को भूलकर दोबारा अपने गृहनगर जाकर अपने पुराने धंधे-पानी  में लग जाते हैं और अपने निर्वाचित क्षेत्रों में भूले से भी नहीं जाते हैं|  कई बार तो क्षेत्रीय प्रत्याशी ही चुनाव जीतकर अपने निर्वाचित क्षेत्र को भूल जाता है| 

लेकिन जनता भी इन "स्टार प्रत्याशियों एवं प्रचारकों" का मोह त्याग नहीं कर पाती हैं और ऐसे ही किसी प्रत्याशी को चुनती है जो लोकप्रिय होता है या फिल्मों-क्रिकेट से जुड़ा होता है| जनता को लगता है... ऐसा "बड़ा आदमी" हमारे काम आएगा, हम बार बार उससे मिलने जाएगें, उसे छू-छूकर बात करेगें| लेकिन ऐसा होता नहीं हैं... ताज़ातरीन उदाहरण अमृतसर से बीजेपी सांसद  नवजोत सिंह सिद्धू का है, जो पिछला लोकसभा चुनाव जीतने के बाद से अमृतसर झांकने तक नहीं गये और वहाँ के स्थानीय लोगों ने सिद्धू के गुमशुदा होने के पोस्टर छपवा कर शहर में चिपका दिए थे| ऐसा ही कुछ हाल कानपुर के स्थानीय कांग्रेसी सांसद श्री प्रकाश जायसवाल का है; वह भी बड़े बड़े वादों के साथ कानपुर से जीतकर पिछली बार दिल्ली गये थे और फिर दिल्ली के होकर रह गये| अब फिर से चुनाव आये है तो जायसवाल साहब फिर कानपुर में नज़र आये हैं| 
ऐसा ही कुछ हाल राष्ट्रपति द्वारा निर्वाचित क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर एवं अभिनेत्री रेखा का था| दोनों पूरे सत्र संसद से नदारत रहे और उनकों मिलने वाली सांसद निधि का पैसा (जो संसदीय क्षेत्र के विकास के लिए मिलता है) भी "लैप्स" कर गया| 

अगर देखा जाय तो ऐसे लोगों को चुनकर जनता ठगा महसूस करती है| उसका वोट का मूल्यहीन हो जाता है| क्षेत्र बुनियादी ज़रूरतों से वंचित रह जाता है और विकास में पिछड़ जाता है| इन परिस्थितियों से बचना है तो जनता और चुनाव आयोग दोनों को सजग होना चाहिए; जनता को ऐसे "स्टार प्रत्याशियों" से दूर रहना और स्थानीय प्रत्याशियों का चुनाव करना चाहिए... 

जो प्रत्याशी चुनाव जीतने के बाद अपने निर्वाचित क्षेत्र में दुबारा न आये और न उसका विकास करे... उस प्रत्याशी को किसी भी कीमत में अपना वोट नहीं देना चाहिए, चाहें वो कितना बड़ा "सेलीब्रिटी" क्यों न हो| दूसरी तरफ़ चुनाव आयोग को भी समय-समय पर सांसदों को उनके क्षेत्र के विकास के बारे में तलब किया जाना चाहिए| यदि कोई सांसद, "सांसद निधि" का पैसा नहीं ले रहा है तो क्यों नहीं ले रहा है? इस बाबत भी सांसदों को जवाबदेह बनाना होगा| यह सारी बातें अभी शायद दूर की कौड़ी लगे... लेकिन अगर जनता अपने वोट की कीमत समझने लगे तो कुछ भी नामुमकिन नहीं होगा|

वोट के चक्कर में पार्टियाँ स्थानीय कार्यकर्ताओं की मेहनत को नाकार कर उन पर रंगे-पुते चेहरे थोप देते हैं जिससे न तो कार्यकर्ता ठीक से काम करता है और न "सेलीब्रिटीज़" ज़मीन पर उतरती हैं; जिसका ख़ामियाज़ा वोट देने के बाद भी जनता ही भुगतती है| 
राजनीतिक पार्टियाँ, वोट और सरकार के लालच में "सेलीब्रिटीज़" को लाते रहेगें लेकिन हमें वही चुनना है जो हमारे लिए सही है... किसी "सेलीब्रिटी" के मोह में फंसकर हमें विकास के दौड़ में पीछे नहीं होना चाहिए| इसलिए...

Wednesday, 16 April 2014

मुसलमान और सत्ता-सरकार

भारत की आज़ादी से लेकर वर्तमान समय तक भारतीय राजनीति में अग़र कुछ नहीं बदला है तो वह मुसलमानों को लेकर होने वाली उठा-पटक है| नेहरू के ज़माने से लेकर मनमोहन के समय तक, भारतीय राजनीति ने बहुत से अच्छे-बुरे दौर देखे हैं लेकिन चुनाव आते ही सारी राजनीति घूम-फिर कर मुसलमानों पर ही आकर अटकती है| 

१६वीं लोकसभा के पांचवें चरण के चुनाव होने वाले है लेकिन भारतीय राजनीति का मुख्य मुद्दा अभी भी मुसलमान बने हुए हैं| कुछ दिनों पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और इमाम बुखारी की मुलाक़ात ने मुस्लिमों को फिर से चुनावी हथकंडे की तरह इस्तेमाल करने की साज़िश नज़र आ रही थी, जिसकी रही-सही कसर बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ ने लखनऊ में मुस्लिम धर्मगुरुओं से मिलकर पूरी कर दी| समाजवादी पार्टी की तो रोज़ी-रोटी ही मुस्लिम राजनीति पर चलती है तो बहुजन समाजवादी पार्टी भी मुस्लिम राग अलापने में पीछे नहीं रहती| 

किसी भी राजनीतिक पार्टी को देखें, सभी मुस्लिमों को रिझाकर वोट पाने को आतुर दिख रहा है; और ऐसा हो भी क्यों न... मुसलमान आज भी किसी मौलाना-इम़ाम के कहने भर से किसी विशेष पार्टी को एक मुश्त वोट करता है, जो चुनावी नतीज़ों पर सीधा-सीधा असर डालता है... इसलिए हर किसी को सत्ता में आने के लिए मुस्लिमों वोट चाहिए| 

भारत में सिर्फ़ कहने के लिए मुसलमान अल्पसंख्यक  हैं जबकि जनसंख्या गणना के आंकड़ों को देखें तो हिन्दूओं के बाद वही दूसरा बड़ा समुदाय है लेकिन भारत में राजनीति के चलते मुस्लिमों को अभी भी अल्पसंख्यक का ही दर्जा मिला हुआ है जबकि वास्तव में इसाई, पारसी, सिख, बौद्ध आदि समुदाय ही अल्पसंख्यक की श्रेणी में आते हैं| 

इन अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को मुसलमानों की तुलना में बहुत कम सरकारी सुविधाएं उपलब्ध हैं या कहें कि बहुत से सरकारी सुविधाएं इन लोगों को मिलती तक नहीं है लेकिन मुसलमानों की तुलना में ये समुदाय बहुत तेजी से तरक्क़ी कर गये हैं और इनके जीवन स्तर में तेजी से सुधार हो रहा है जबकि सभी राजनीतिक पार्टियों और सरकार का समर्थन प्राप्त होते हुए भी मुस्लिम समाज आज भी वही खड़े हैं जहाँ वो आज़ादी के वक़्त खड़े थे| आज भी मुस्लिम समुदाय मूल आवश्यकताओं से दूर है... जबकि मुस्लिमों की तुलना में तो दलित समाज भी तरक्की के मामले में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है|

इसका मुख्य कारण यह है कि दलितों एवं अन्य समुदायों को भारतीय राजनीति में वोट बैंक के लिए सीधे तौर पर घसीटा नहीं गया है| जिसके चलते इन समुदायों ने अपनी तरक्क़ी का रास्ता खुद ही बनाया और खुद ही लगातर चलते जा रहे हैं...
सरकार द्वारा जितना लाभ इन्हें मिला है... इन लोगों से उन अवसरों को दोनों हाथों से लपका है और अपना विकास करने में लग गये हैं| सिख एवं दलितों को देखिए... आज वो अनेक उच्च पदों पर आसीन हैं| बड़ी-बड़ी कम्पनियों में काम कर रहें हैं| उनके जीवन स्तर का ग्राफ ऊपर बढ़ रहा है|

जबकि दूसरी तरफ़ राजनेताओं ने अपने स्वर्थ और वोट बैंक के चलते मुस्लिमों को अपना हथकंडा बना लिया है| नेता, मुसलमानों को आरक्षण का लॉलीपॉप का लालच देकर आगे बढ़ने ही नहीं दे रहे हैं और मुसलमान भी पकी-पकाई रोटी खाने के चक्कर में कुछ करना ही नहीं चाहते हैं| आज भी वो मदरसों में ही पढ़ रहे हैं... वो अभी भी पुरानी लकीर के फ़कीर बने हुए हैं| आज भी मुसलमान अपनी बुद्धि और विवेक की बज़ाय मौलाना-इमामों के फ़तवों में अपनी ज़िन्दगी तलाशते हैं... जबकि इनकें कुछ मुठ्ठी भर इमाम पैसा लेकर नेताओं के इशारों पर काम करते है और पूरे समुदाय को बदहाली में झोंक रहे हैं| 

मुसलमान तब तक तरक्क़ी करके सम्मानजनक जीवन नहीं जी सकता जब तक वह अपने विवेक से सही-ग़लत का फ़ैसला करना नहीं सीखेगा... स्वयं को वोट बैंक की गंदी राजनीति से दूर नहीं करता... लॉलीपॉप चाटने के बज़ाय अपने हाथों से जली ही सही, रोटी नहीं सेंकता और दलितों-सिखों की तरह ख़ुद मेहनत नहीं करता...
जिस दिन ये सारे गुण मुसलमानों में आ जाएगें वह नेताओं के हाथों की कठपुतली नहीं रह जाएगा और विकास के रास्ते पर चल निकलेगा|









Tuesday, 15 April 2014

आगाज़ से पहले अंत

आज बहुत शर्म महसूस हो रही है कि बीते कुछ वक़्त पहले मै अरविन्द केजरीवाल में भारत का स्वर्णिम 
भविष्य देख रही थी। मैंने अपने घर में होने वाली अधिकतर बहसों में केजरीवाल को डिफेंड किया है क्योंकि मुझे भी अन्य लोगों की तरह केजरीवाल में एक नया सिंदबाद दिखा था और मैंने एक लम्बा चौड़ा आर्टिकल भी लिखा था।
लेकिन अब केजरीवाल के रंग ढंग देखकर बहुत दुःख हो रहा की क्यों मैंने इसे भारत का भविष्य समझा... यह भी अन्य नेताओं की तरह गिरगिट खाल का निकला।

शायद यह स्वस्थ और स्वच्छ राजनीति करता तो मेरा और मेरे जैसे अन्य लोगों का समर्थन इसे हमेशा प्राप्त होता लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री बनते ही लोकसभा के लालच में केजरीवाल ने अपने युवा समर्थन पर स्वयं ही झाडू मार ली और बचा-खुचा समर्थन मात्र मोदी को हराने के लिए कांग्रेस एवं सजा-ए-आफ़्ता मुजरिम मुख़्तार अंसारी से हाथ मिलाकर खत्म कर लिया।

बेशक़ केजरीवाल शीला दीक्षित की तरह मोदी को भी हारने की राजनीति करते लेकिन जो मूल्य और नैतिक आधार वो लेकर चले थे, उन्हें उसके साथ समझौते नहीं करने चाहिए थे क्योंकि इस राजनीतिक हरम में सब पार्टी और उनके नेता नंगे है चाहें जो वो बीजेपी हो या कांग्रेस या फिर सपा-बसपा या कोई बाहुबली गुंडा नेता। ऐसे में केजरीवाल को किसी से भी हाथ नहीं मिलना चाहिए था और न इसके बारे में सोचना चाहिए था। लेकिन सत्ता का स्वाद ही ऐसा होता है कि अच्छे से अच्छा इंसान भी लालच में फंस जाता है और यही हाल केजरीवाल का हुआ... दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उनमें अहंकार और लोकसभा का लालच कुछ इस तरह से भर गया कि वो अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार बैठे हैं|


हो सकता है १६वीं लोकसभा का चुनाव केजरीवाल जीत जाये (जिसकी सम्भवना लगभग नगण्य है)... लेकिन केजरीवाल ने अधिकांश जनता का विश्वास खो दिया है और अब वह विश्वास हासिल करना अब बहुत ही मुश्किल होगा क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल में लोगों ने केजरीवाल को खेवनहार के रूप में देखा था, जो उन्हें नरक जैसी जिन्दगी से निज़ात दिलाने वाला था| दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल को मुख्यत: गरीब, पिछड़ी जनता का वोट मिला था, जो हालत से समझौता करके बदतर ज़िन्दगी जीने को मज़बूर हो चुके थे या समझो किये गए थे| केजरीवाल ने ही उन्हें नर्क से निकले के सपने दिखाए और स्वयं ही उनकी उम्मीदों के दिए बुझाए! जिसकी परिणिति थप्पड़ों के रूप में बाहर आ रही है| मै केजरीवाल और उनके प्रत्याशियों को पड़ने वाले एक भी थप्पड़ के पक्ष में नहीं हूँ... क्योंकि सिर्फ़ एक केजरीवाल नहीं है जिसने जनता को ठगा हो, यहाँ तो हर नेता जनता को मूर्ख बना रहा है और जनता चुपचाप मूर्ख बन रही है| आजतक किसी भी आम आदमी की इतनी हिम्मत नहीं हुई कि वो उठे और नेता से कोई सवाल करे या उसकी ग़लती पर थप्पड़ जड़ दे| ऐसे में केजरीवाल को मारना आश्चर्यजनक एवं निंदनीय है| जनता केजरीवाल को थप्पड़ लगा सकती है क्योंकि अन्य नेताओं की तरह उसने ज़ेड प्लस सुरक्षा नहीं ली है| अगर जनता वाकई में जागरूक हुई है तो अन्य नेताओं से भी ज़वाब मांगने चाहिए और असंतुष्ट होने पर उन्हें भी कान के नीचे लगाने चाहिए

केजरीवाल को एक बार आत्म-मंथन की आवश्यकता है, जिससे उन्हें यह मालूम हो सके कि वो जनता के लिए राजनीति में आये थे या सत्ता के लिए| क्योंकि जब तक उनका लक्ष्य स्पष्ट नहीं होगा वो न तो अपने लिए कुछ कर पायेगें और न जनता और सत्ता के लिए| लेकिन मेरी अभी कोई भी शुभकामनाएं उनके साथ नहीं है जब तक वो अपना दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं करते





सो कॉल्ड नैतिकता

हमारे समाज में नैतिकता इतनी हावी हो चुकी है कि हम किसी भी व्यक्ति को अनैतिक कार्य करते हुए देख ही नही सकते और अगर किसी का कोई अनैतिक कृत्य हमारे सामने आ जाता है तो हम उस व्यक्ति को सुधारने के लिए इतने उत्सुक, तत्पर और आतुर हो जाते है कि अपनी नैतिकता तक को दाँव पर लगाने से नहीं चूकते।

हम अपनी बीवी को भले ही दिनभर लतियाते हो लेकिन पड़ोसी क्या मज़ाल अपनी बीवी से ऊँची आवाज़ में बात कर ले। हमारा सुपुत्र भले ही आते जाते लड़कियों को छेड़े लेकिन बगल वाली लड़की का दुप्पटा कैसे ग़लती से भी यथास्थान से हटने पाए। हमारा अपना "एक्स्ट्रा मैरिटल अफ़ेयर" हो लेकिन जीवनसाथी वफ़ादार होना ही चाहिए। हमारी बेटी भले ही हर दूसरे दिन नये लड़के के साथ घूमे लेकिन बहु सर्वगुण सम्पन्न गौ जैसी चाहिए।

सच तो यह है "सो कॉल्ड नैतिकता" दूसरों के लिए है और अपने लिए कोई नियम क़ानून नहीं । मैंने अक्सर देखा है जो दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाते है वही सबसे बड़े अनैतिक कामों में लगे होते हो।

इसलिए भई दूसरों की चढ्ढी में छेद ढूँढने से पहले अपनी निक्कर ज़रूर एक बार ठीक से देख लें।


Tuesday, 10 December 2013

एक नया सिंदबाद !!!

विज्ञान के अनुसार आदतें धीरे धीरे वंशानुगत हो जाती हैं... हम गुलाम मानसिकता से ग्रस्त है इसलिए "टीम केजरीवाल" की जीत को पचा नहीं पा रहे हैं| बीजेपी ज़रूर ज़्यादा सीटें लेकर प्रथम पार्टी बन कर उभरी है लेकिन सही मायनों में चली तो सिर्फ "झाड़ू" है... लेकिन हम गंदगी में रहने के इतने आदी हो चुके हैं कि सफाई रास ही नहीं आ रही है|

हम बरसों से कांग्रेस और भाजपा के बीच डोलते रहे हैं... जिसका परिणाम हमने स्वयं भुगता है| दोनों पार्टियाँ मनमानी और भ्रष्टाचार की पराकाष्टता को पार कर गईं है| हम दोनों पार्टियों को गाली देते हैं लेकिन विकल्प न होने की दशा में उन्हीं भ्रष्टतम लोगों में निम्न भ्रष्ट को वरीयता देकर सत्ता में लाने के लिए बाध्य थे... 

और अपनी इन दुर्दशाओं के निवारण हेतु हम किसी सिंदबाद की राह देख रहे थे कि कोई तो आये तो हमें इन दोनों से मुक्त करे... लेकिन जब "आप" पार्टी भ्रष्टाचार में फंसी नैया खेने के लिए आई है तो हम उसे शक की निगाह से देख रहे हैं| 


भाई एक मौका तो दो किसी को कुछ करने का... कोई भी अपनी माँ के पेट से कुछ सीखकर नहीं आता और न किसी के खून में सत्ता चलाने का कीड़ा होता है| जहाँ हम कांग्रेस-बीजेपी, बीजेपी-कांग्रेस को मौका देकर कुछ बदलाव की उम्मीदें करते थे और मिलता कुछ नहीं था फिर भी हम कभी नहीं थके... तो ऐसे में जब हमारे सामने कोई बदलाव लेकर आया है तो हम उसे एक मौका क्यों नहीं देना चाहते है... अरे "टीम केजरीवाल"  नाकाम रही तो हमारे पास तो कांग्रेस और बीजेपी हैं ही.... हमारा खून  चूसने और अरमान पीसने के लिए !!!

दिल्ली में जो त्रिशंकु की स्थिति बन गयी है ऐसे में दोबारा चुनाव ही एक मात्र विकल्प बचता है...परन्तु  कुछ लोग दोबारा चुनाव होने से डर रहें हैं.... कुछ नाराज़ है... उन्हें  लग रहा है कि जनता का पैसा फिर बर्बाद होगा... 
अरे यार कांग्रेस-बीजेपी ने जितने घोटाले किये हैं उससे तो कम ही पैसे लगेगें... होने दो चुनाव और चुनाव ही तो लोकतंत्र का आधार है... निहित है.... मांग है| 

जिसमे दम होगा वो निकल कर आएगा सामने... चाहें वो बीजेपी हो या फिर "टीम केजरीवाल" और बीजेपी को डर होगा कि जिस तरह "आप" ने जनता के  बीच घुसपैठ बनाई है ऐसे में क्या उन्हें दोबारा चुनाव में अपनी ३२ सीटें मिल पाएगीं.....पूर्ण बहुमत तो दूर की कौड़ी है ज़नाब !!!

हम त्रस्त हो चुके हैं अभी तक के सत्ताधारियों और विपक्ष से.... बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अराजकता और असुरक्षा से... आज से पहले भी तो बीजेपी ही दिल्ली में  विपक्ष में रही है... तब क्यों सत्तारूढ़ शासक को निरंकुश होने दिया ??? क्यों स्वयं हिजड़ों जैसा बर्ताव किया जनता के सामने.... किसने रोका था उसे सशक्त विपक्ष बनने से ??? "दिल्ली रेप काण्ड" में जनता को सरकार से कम विपक्ष से ज्यादा उम्मीदें थी पर विपक्ष तो सामने ही नहीं आ रहा था.... जैसे उसने रेप किया था... सरकार को घेरने के लिए जनता सड़क पर थी लेकिन विपक्ष चूड़ी-घाघरा पहने नचनिया बन गयी थी...  फिर भी देश का एक खास वर्ग  देश की आबोहवा बदलना नहीं चाहते क्योंकि  उन्होंने न्यूटन द्वारा प्रतिपादित "जड़त्व के नियम" का रट्टा मार कर हाईस्कूल में अच्छे नम्बर लाये थे पर प्रबुद्ध जीवियों को शायद याद नहीं न्यूटन ने "जडत्व के नियम" के बाद "क्रिया-प्रतिक्रिया के नियम" का प्रतिपादन किया था...

यह हमारी गुलाम मानसिकता का प्रमाण है कि हम बदलाव नहीं चाहते| विकल्प के रूप में चाहें कितना ही सुनहरा अवसर मिलें, हम उसे भुनाना नहीं चाहते क्योकि हमारा रोम रोम, हमारा मन-मस्तिष्क सब सोच का गुलाम हो चुका है| हम पीढ़ियों से किसी ख़ास वर्ग द्वारा की शासित किये गये हैं और आज भी हम उन्हीं निकम्मों, नाकारों को देश में शासक के रूप में देखना चाहते हैं... 

परन्तु समय करवट ले चुका है और एक नये सिंदबाद का उद्भव हो चुका है....

Wednesday, 17 July 2013

मुम्बई की रातें फिर हसीं

मुम्बई डांस बार के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आते ही भारत की औद्योगिक राजधानी मुम्बई की सात सालों से स्याह पड़ी रातें फिर से रंगीन होने वाली हैं|

मुम्बई में लगभग डेढ़ हजार के आस-पास छोटे-बड़े डांस बार थे, जिनसे लगभग २० हजार लोगों की रोजी-रोटी चलती थी लेकिन सात साल पहले मुम्बई सरकार ने इन डांस बारों पर वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने, डांस बार की आढ में अपराध का बढ़ना और डांस बार में काम करने वाली लड़कियों के यौन शोषण और इन लड़कियों के उत्तेजक नृत्यों द्वारा अश्लीलता परोसने का आरोप लगाते हुए इन डांस बारों पर रोक लगा दी थी| जिसके चलते बार संचालकों ने हाई कोर्ट में अपील की थी और हाई कोर्ट ने डांस बार के पक्ष में ही फैसला दिया था, जिसे राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी... लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी हाई कोर्ट के फैसला ही सही ठहराया| जिसके चलते मुंबई में अब डांस बार फिर से खुल जाएगें|

वस्तुतः सरकार की यह सभी दलीलें सत्य के बहुत करीब हैं, परन्तु रोक लगाने से पहले और बाद में सरकार ने इन डांस बारों में काम करने वाली लड़कियों के पुनर्वास और भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचा और न ही कोई ठोस कदम उठाया| जिसका नतीजा यह निकला कि राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट और बार संचालकों के हाथों मुँह की खानी पड़ी|

डांस बारों पर रोक लगाने के बाद यह सरकार का जिम्मा था कि इन बार में काम करने वाली लड़कियों को सरकारी/ गैर सरकारी संस्थानों में नौकरी दिलवाती और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करती| समाज हमेशा से मानकर चला आ रहा है कि इन बार में काम करने वाली लड़कियों का चरित्र और नैतिकता से कोई सरोकार नहीं होता है, इसलिए डांस बार के अलावा कहीं और काम करने से उनका यौन(वेतन) शोषण) न हो| लेकिन इन लड़कियों को समाज में पुन: स्थापित करना तो दूर सरकार इनके लिए आजीविका तक का प्रबंध न कर सकी|

दूसरी तरफ समाज के बुद्धिजीवियों और ठेकेदारों का मानना है कि इन बार बालाओं के पास, बार में नाचने के अलावा आजीविका कमाने के बहुत से साधन हैं परन्तु जब इन महानुभावों से विकल्पों के बारे में पूछा जाता है तो चरित्र और नैतिकता पर भाषण सुना देते हैं लेकिन स्पष्ट विकल्पों के बारे में कोई बात नहीं होती|

आज भारत में इंजीनियर, एमबीए, बी.एससी/बीए किए लोगों को नौकरी नहीं मिलती, ऐसे में इन अनपढ़ डांस बालाओं को कौन सी नेशनल/मल्टीनेशनल कम्पनी अपने यहाँ काम पर रखेगी, जब इन लड़कियों को समाज में कोई सम्माननीय स्थान नहीं प्राप्त है, लोग इन लड़कियों में मुँह पर इन्हें वैश्या बोलते हैं और यदि स्वयं कोई लघु उद्द्योग खोलने के लिए पैसे होते तो ये लड़कियाँ डांस बारों में नाचती हुई नज़र नहीं आती| सरकारी या गैर सरकारी बैंकें और संस्थान उन्हीं की मदद के लिए पैसा देती हैं जिनके पास पहले से पैसा होता है| परन्तु सरकार इनके पुनर्वास के लिए कोई कदम उठाना ही नहीं चाहती थी, जिसके चलते बहुत सी लड़कियों ने आत्महत्या कर ली और बहुत सी अपने परिवार के साथ भूखों मरने के लिए सड़क पर आ गई|

सरकार का डांस बार पर रोक लगाने का कदम बहुत हद तक स्वयं में वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने वाला था| जिन लड़कियों को अपनी और परिवार की आजीविका जुटाने का कोई साधन नहीं मिला वो मजबूर होकर वेश्यावृत्ति में आ गईं जबकि पहले वो सभी शराब परोसने और नाचने तक ही सीमित थी|

राज्य सरकार का यह कहना कि इन डांस बार से आम जनता का चारित्रिक एवं नैतिक पतन हो रहा है, कुछ ज़्यादा ही हास्यास्पद है| लगता है सरकार और उसके नुमाइंदों की आखों में दृष्टिदोष है या फिर काला चश्मा चढा है क्योंकि देश का फिल्मीस्तान मुम्बई ही है, जहाँ लगातार अश्लीलता युक्त पिक्चरें एवं गाने बन रहे हैं| मुम्बई सरकार को फिल्मों के माध्यम से परोसी जा रही अश्लीलता नज़र क्यों नहीं आती| जब हीरोइनें मुन्नी, शीला या फेवीकोल जैसे गानों पर उत्तेजन और अश्लील इशारों के साथ नाचती हैं तब उन्हें सर्वश्रेष्ठ नायिका का पुरस्कार मिलता है वही दूसरी तरफ़ यही गाने डांस बार में बजते है तो अश्लीलता का ठप्पा चस्पा कर दिया जाता है|

बड़े पर्दे की बात करें तो कटरीना, करीना से लेकर राखी, पूनम पांडे जैसी हर हिरोइन नंगेपन पर उतारू है| सलमान, शाहरुख हर सीन में अपनी शर्ट उतारे फेंकते हैं और इमरान हाशमी टाइप लोग तो नायिका के होंठ तक चबा डालते हैं| इंटरनेट पर हिरोइनों के न्यूड वीडियो और फ़ोटोआसानी से उपलब्ध हैं| वही टीवी पर हर सीरियल में सुहागरात के सीन पूरी तन्मयता से शूट करके दिखाए जा रहे हैं| जिसे युवाओं के साथ-साथ बच्चे और बड़े-बूढ़े भी पूरे परिवार के साथ इनके नंगेपन को देखने को मज़बूर हैं| ऐसे में सरकार द्वारा अश्लीलता को लेकर निर्धारित गाइडलाइन कहाँ?

सभी जानते हैं फिल्म उद्द्योग में आने वाली दस में से आठ लड़कियों का यौन शोषण होता है| फ़िल्म में छोटे से रोल के लिए एक नई लड़की को कितने ही लोगों को खुशकरना होता है| मिस इंडिया/वर्ल्ड और इसके जैसी ही अन्य सौंदर्य प्रतियोगितायें न जाने कितनी ही बार विवादों में घिरती है| लेकिन वहाँ सरकार कुछ नहीं बोलती और न कोई कार्यवाही होती है|

मेट्रो शहरों में संचालित मसाज पार्लर, फ्रेंडशिप क्लबों में अमीर घरानों के लड़के-लड़कियाँ होती हैं जो आजीविका के लिए कम मौज-मस्ती के लिए ज़्यादा जाते हैं इसलिए सरकारें और पुलिस दोनों ही चुप्पी साधे रहती हैं| बड़े बड़े राजनेताओं के घर पार्टियों में क्या होता है!!! ये किससे छुपा है| यूँ ही सेक्स रैकेट संचालकों की डायरियों में इन नेताओं और अफसरों के नंबर नहीं होते|

यदि सरकार और पुलिस समाज के चारित्रिक एवं नैतिक उत्थान के लिए कटिबद्ध है तो उसे शराब और गुटखा बनाने वाली कंपनियों पर रोक लगानी होगी| फिल्मीस्तान द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता को रोकना होगा| इंटरनेट पर उपलब्ध असमाजिक सामग्री को हटाना होगा|

अफ़सोस है... मुम्बई सरकार बार बालाओं के पुनर्वास और उनकी आजीविका के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई परन्तु इतनी उम्मीद सरकार और पुलिस से कर ही सकते है कि वो हाल में लाइलेंस के साथ खुलने वाले डांस बारों पर पैनी नज़र रखेगी, जिससे बार में अश्लीलता न परोसी जा पाए और न ही लड़कियों को वेश्यावृत्ति की ओर धकेला जाय|