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Friday 10 August 2012

वो कबूतर का बच्चा!


­जब मन में अनहोनी की आशंका होती है और वह घटित हो जाती है, तो हृदय दुःख और विषाद से भर जाता है| कल रात जब मैं सोने जा रही थी मुझे यकीन था कि सुबह उठकर मुझे शतप्रतिशत दुखद समाचार से दो चार होना पडेगा और वैसा हुआ भी! आज सुबह उठकर जैसे ही आशंकित मन के साथ; मैं अपने आंगन में पहुँची, मेरी माँ ने मुझे वह दुखद समाचार सुना दिया... मैं समाचार सुनकर सिर्फ इतना ही बोल पाई “मुझे तो पता था यहीं होगा”| मेरा हृदय दुःख से भरता जा रहा था, मन मायूस हो गया| मेरी नज़रे उस छोटे-से कबूतर के बच्चे को लगातार ढूंढ रही थी और दुआ कर रही थी, काश! वह वापस आ जाए| हमने दो बार उसे बचाया था पर आज शायद उसकी किस्मत अपना खेल दिखा गई थी| आंगन में बस उस छोटे-से कबूतर की माँ बार-बार गूंटर गूं गूंटर गूं करके इधर-उधर उड़कर अपने बच्चे को ढूंढ रही थी| कभी आंगन की मुंडेरों पर बैठकर अपने बच्चे को पुकारी तो कभी रोशनदान पर अपना बार-बार सिर पटकती| उसकी आवाज में इतनी वेदना थी कि मेरा हृदय फटा जा रहा था| मैं अभी किसी की माँ नहीं हूँ फिर भी आज मेरा ह्रदय उस कबूतर के बच्चे के लिए तड़प रहा था| मुझे लग रहा था जैसे मेरा बच्चा मुझसे दूर हो गया है| मैं सिर्फ यही सोच रही थी उस माँ की हालत क्या हो रही होगी; जिसने इसे जन्म दिया, सेया है, रोज़ उसके लिए दाना लाती है|

बच्चा थोड़ा बड़ा हो गया था, उसे उड़ना सीखे हुए दो-चार दिन ही हुए थे; इसलिए मेरे आंगन में बने अपने घोंसले से निकल कर मुंडेरों पर चीं चीं करते हुए फुदकता उड़ता फिरता था| उसकी उड़ान सीमा महज़ पन्द्रह फुट से ज़्यादा नहीं थी इसलिए सिर्फ आँगन, बरामदे में ही घूमता रहता था और अगर थोड़ा जोश में आ गया तो छत की मुंडेर के एक-आध चक्कर काट कर फिर नीचे आ जाता था| उस नन्हें-से बच्चे के सिर्फ दो ही काम थे; एक तो इधर उधर उड़ना और दूसरा पूरे आंगन में बीट करना| उसकी बीट से पूरा आंगन और आंगन में रक्खा सारा समान गंदा हो रहा था पर हमको कोई आपत्ति नहीं थी | हम उनपर ध्यान भी नहीं देते कि वह और उसकी माँ क्या कर रहे है? लेकिन आज जब बच्चा हमारी नज़रों के सामने नहीं था तो हम सब सिर्फ उसकी ही बातें कर रहे थे; सारा दिमाग उस बच्चे पर टिक-सा गया था| उसकी माँ की तड़प और दर्द, हमारी रही-सही वेदना को खरोंच-सी रही थी| उसकी माँ के साथ-साथ हम भी उस नन्हें से बच्चे के लिए विकल हो रहे थे| मानों ऐसा लग रहा था जैसे कोई अपना हमारे सीने में बिछोह का खंज़र घोंप कर हमसे हमेशा के लिए बिछड़ गया है और हम सीने में दर्द लिए जीवित रहने के लिए मज़बूर हैं|

उस माँ की हालत हम समझ रहे थे जो हमेशा के लिए अपने नन्हें-से बच्चे से बिछड़ गई थी और इस बिछोह का ज़िम्मेदार कोई और नहीं मेरा भाई था| मुझे रह-रह कर अपने भाई पर गुस्सा आ रहा था; उसको क्या जरूरत थी; रात में उस नन्हें-से बच्चे को मुंडेर से उड़ाने की? उसने अपनी बीट से सिर्फ आंगन ही तो गंदा किया था, वह पानी से धोकर साफ़ कर लिया जाता| दो दिन पहले, पापा उसे मारने जा रहे थे क्योंकि वह बार बार उड़कर रसोईघर में घुसने की कोशिश रह रहा था तब नानी अम्मा और मैनें मना किया| परसों भाई को परेशान कर दिया तो वह मारने जा रहा था; तब माँ ने उसे रोक लिया और कहा “जाने दो, बेचारा बेजुबां पक्षी ही तो है, क्यों मारोगे उसे” पर कल रात को उसने पूरा आंगन अपनी बीट से गंदा कर दिया तो भाई ने उसे मारने की बजाय उड़ा दिया| भाई ने उसे मारने की बजाय उडाकर, काम तो अच्छा किया था पर वो नन्हा-सा बच्चा उड़कर अपने घोंसले में जाने की बजाय ऊपर छत की ओर उड़ गया|

जैसे ही उसके उड़ने की फड़फाड़ाहट की आवाज़ माँ और नानी अम्मा के कानों में पड़ी; वे दोनों भाई से नाराज़ हुई “क्यों रात में उसे उड़ा दिया? अब उसे कोई बिल्ली नोंच डालेगी! अब वह जिंदा नही बचेगा”, मुझे भी भाई की इस हरकत पर गुस्सा आया| हमारी छत पर अक्सर बिल्लियाँ आती हैं जो पक्षियों के छोटे छोटे बच्चों पर झपटकर अपना शिकार बनाती हैं| इसी बात से हम सब आशंकित और दुखी थे कि वह कबूतर का बच्चा भी किसी बिल्ली का आहार बन जाएगा| हम सबको दुःख तो था लेकिन वह हमारा बच्चा नहीं था इसलिए हम उसे ढूँढने भी नहीं गए | बस हम सब दुआ कर रहे थे कि वह नन्हा-सा बच्चा बच जाए| रात गहराती गई और हम सो गए| लेकिन जब सुबह उठकर कबूतर के बच्चे को आंगन में नहीं पाया तब हमें लग रहा था कि जैसे कोई अपना हमसे दूर चला गया है| हमें उसके जीवित बचने पर शक तो रात से था, लेकिन सुबह शक और गहरा हो गया जब बच्चे को आंगन में नहीं पाया; उसपर उस बच्चे की माँ का विलाप, हमें यकीन दिलाने के लिए काफ़ी था| हम दुःख और संताप से भर गए थे| कबूतरी परेशान-सी आंगन का कोना कोना छान रही थी और जब बच्चा आंगन में नहीं मिला तो उसकी तलाश में वह छत पर उड़ गई| यह घटनाक्रम करीब दो घंटे चलता रहा और हम बेबस मूकदर्शक बने देखते और दुखी होते रहे|

अचानक दीदी चिल्लाई “देखो! बच्चा!!!” यह क्या! अचानक से कबूतरी अपने बच्चे को कहीं से ढूंढ लाई! पर कहाँ से? शायद रात में डरकर बच्चा कहीं छुपकर बैठ गया होगा, जब सुबह अपनी माँ की करुण पुकार सुनी तो बाहर आ गया होगा| बच्चे को देखकर हमारा दुःख जाता रहा, हम खुशी से झूम उठे| हमारे होठों पर एक मील लम्बी मुस्कान थी, हृदय आनंद से भरा हुआ था|
दीदी फिर से बोली आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन भगवान किसी को दुःख नहीं दे सकते”, शायद यह बात सत्य भी है| कबूतर का बच्चा और उसकी माँ बहुत खुश है, वह दोनों सुबह से साथ साथ हैं| शायद भाई की कल वाली हरकत से वह दोनों इतना भयभीत है कि वह छत की मुंडेर से नीचे आंगन में नहीं आए हैं|

अब मैं सिर्फ इतना ही सोच रही हूँ कि जो दर्द और दुःख हमें हो रहा था, भाई को क्यों नहीं हुआ? पापा को उस बच्चे से ममता क्यों नहीं हुई? उसकी बीट हम औरतों को ही दिनभर साफ करनी पड़ती है फिर भी हमें उस पर गुस्सा नहीं आया| क्या सच में पुरुष के सीने में ममता और प्रेम नहीं होता? क्या ईश्वर ने उसकी प्रकृति निष्ठुर ही बनाई है? उस बच्चे को अगर कोई बिल्ली खा जाती तब पापा और भाई को संताप होता? क्या वे दोनों उसकी मौत को आसानी से भुला देते? बहुत से सवाल मेरे मन में उठ रहे है, जिनका मेरे पास कोई उत्तर नहीं है|
पर आज मैं और घर की सभी औरतें खुश हैं कि कबूतर का छोटा-सा बच्चा जीवित है| हम यही कामना करते हैं कि वह बच्चा चिरंजीवी हो|

श्रीकृष्ण प्रेम के देव है, विश्व में व्याप्त सम्पूर्ण प्रेम का केन्द्र श्रीकृष्ण ही हैं| इसलिए आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ, “हे नाथ! थोड़ा सा प्रेम और ममत्व का संचरण पुरुष हृदय में भी करें”|


1 comment:

  1. मुहल्‍लों की बि‍ल्‍लि‍यां तो, यूं लगता है कि‍ मानों ज़ि‍न्‍दा ही इन्‍हीं कबूतरों के भरोसे रहती हैं (भइये ये वर्ड वेरि‍फ़ि‍केशन तो हटा लो, मैं गारंटी देता हूं कि‍ कोई रोबोट टि‍पपणी करने नहीं आएगा)

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