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Tuesday 10 December 2013

एक नया सिंदबाद !!!

विज्ञान के अनुसार आदतें धीरे धीरे वंशानुगत हो जाती हैं... हम गुलाम मानसिकता से ग्रस्त है इसलिए "टीम केजरीवाल" की जीत को पचा नहीं पा रहे हैं| बीजेपी ज़रूर ज़्यादा सीटें लेकर प्रथम पार्टी बन कर उभरी है लेकिन सही मायनों में चली तो सिर्फ "झाड़ू" है... लेकिन हम गंदगी में रहने के इतने आदी हो चुके हैं कि सफाई रास ही नहीं आ रही है|

हम बरसों से कांग्रेस और भाजपा के बीच डोलते रहे हैं... जिसका परिणाम हमने स्वयं भुगता है| दोनों पार्टियाँ मनमानी और भ्रष्टाचार की पराकाष्टता को पार कर गईं है| हम दोनों पार्टियों को गाली देते हैं लेकिन विकल्प न होने की दशा में उन्हीं भ्रष्टतम लोगों में निम्न भ्रष्ट को वरीयता देकर सत्ता में लाने के लिए बाध्य थे... 

और अपनी इन दुर्दशाओं के निवारण हेतु हम किसी सिंदबाद की राह देख रहे थे कि कोई तो आये तो हमें इन दोनों से मुक्त करे... लेकिन जब "आप" पार्टी भ्रष्टाचार में फंसी नैया खेने के लिए आई है तो हम उसे शक की निगाह से देख रहे हैं| 


भाई एक मौका तो दो किसी को कुछ करने का... कोई भी अपनी माँ के पेट से कुछ सीखकर नहीं आता और न किसी के खून में सत्ता चलाने का कीड़ा होता है| जहाँ हम कांग्रेस-बीजेपी, बीजेपी-कांग्रेस को मौका देकर कुछ बदलाव की उम्मीदें करते थे और मिलता कुछ नहीं था फिर भी हम कभी नहीं थके... तो ऐसे में जब हमारे सामने कोई बदलाव लेकर आया है तो हम उसे एक मौका क्यों नहीं देना चाहते है... अरे "टीम केजरीवाल"  नाकाम रही तो हमारे पास तो कांग्रेस और बीजेपी हैं ही.... हमारा खून  चूसने और अरमान पीसने के लिए !!!

दिल्ली में जो त्रिशंकु की स्थिति बन गयी है ऐसे में दोबारा चुनाव ही एक मात्र विकल्प बचता है...परन्तु  कुछ लोग दोबारा चुनाव होने से डर रहें हैं.... कुछ नाराज़ है... उन्हें  लग रहा है कि जनता का पैसा फिर बर्बाद होगा... 
अरे यार कांग्रेस-बीजेपी ने जितने घोटाले किये हैं उससे तो कम ही पैसे लगेगें... होने दो चुनाव और चुनाव ही तो लोकतंत्र का आधार है... निहित है.... मांग है| 

जिसमे दम होगा वो निकल कर आएगा सामने... चाहें वो बीजेपी हो या फिर "टीम केजरीवाल" और बीजेपी को डर होगा कि जिस तरह "आप" ने जनता के  बीच घुसपैठ बनाई है ऐसे में क्या उन्हें दोबारा चुनाव में अपनी ३२ सीटें मिल पाएगीं.....पूर्ण बहुमत तो दूर की कौड़ी है ज़नाब !!!

हम त्रस्त हो चुके हैं अभी तक के सत्ताधारियों और विपक्ष से.... बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अराजकता और असुरक्षा से... आज से पहले भी तो बीजेपी ही दिल्ली में  विपक्ष में रही है... तब क्यों सत्तारूढ़ शासक को निरंकुश होने दिया ??? क्यों स्वयं हिजड़ों जैसा बर्ताव किया जनता के सामने.... किसने रोका था उसे सशक्त विपक्ष बनने से ??? "दिल्ली रेप काण्ड" में जनता को सरकार से कम विपक्ष से ज्यादा उम्मीदें थी पर विपक्ष तो सामने ही नहीं आ रहा था.... जैसे उसने रेप किया था... सरकार को घेरने के लिए जनता सड़क पर थी लेकिन विपक्ष चूड़ी-घाघरा पहने नचनिया बन गयी थी...  फिर भी देश का एक खास वर्ग  देश की आबोहवा बदलना नहीं चाहते क्योंकि  उन्होंने न्यूटन द्वारा प्रतिपादित "जड़त्व के नियम" का रट्टा मार कर हाईस्कूल में अच्छे नम्बर लाये थे पर प्रबुद्ध जीवियों को शायद याद नहीं न्यूटन ने "जडत्व के नियम" के बाद "क्रिया-प्रतिक्रिया के नियम" का प्रतिपादन किया था...

यह हमारी गुलाम मानसिकता का प्रमाण है कि हम बदलाव नहीं चाहते| विकल्प के रूप में चाहें कितना ही सुनहरा अवसर मिलें, हम उसे भुनाना नहीं चाहते क्योकि हमारा रोम रोम, हमारा मन-मस्तिष्क सब सोच का गुलाम हो चुका है| हम पीढ़ियों से किसी ख़ास वर्ग द्वारा की शासित किये गये हैं और आज भी हम उन्हीं निकम्मों, नाकारों को देश में शासक के रूप में देखना चाहते हैं... 

परन्तु समय करवट ले चुका है और एक नये सिंदबाद का उद्भव हो चुका है....

Wednesday 17 July 2013

मुम्बई की रातें फिर हसीं

मुम्बई डांस बार के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आते ही भारत की औद्योगिक राजधानी मुम्बई की सात सालों से स्याह पड़ी रातें फिर से रंगीन होने वाली हैं|

मुम्बई में लगभग डेढ़ हजार के आस-पास छोटे-बड़े डांस बार थे, जिनसे लगभग २० हजार लोगों की रोजी-रोटी चलती थी लेकिन सात साल पहले मुम्बई सरकार ने इन डांस बारों पर वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने, डांस बार की आढ में अपराध का बढ़ना और डांस बार में काम करने वाली लड़कियों के यौन शोषण और इन लड़कियों के उत्तेजक नृत्यों द्वारा अश्लीलता परोसने का आरोप लगाते हुए इन डांस बारों पर रोक लगा दी थी| जिसके चलते बार संचालकों ने हाई कोर्ट में अपील की थी और हाई कोर्ट ने डांस बार के पक्ष में ही फैसला दिया था, जिसे राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी... लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी हाई कोर्ट के फैसला ही सही ठहराया| जिसके चलते मुंबई में अब डांस बार फिर से खुल जाएगें|

वस्तुतः सरकार की यह सभी दलीलें सत्य के बहुत करीब हैं, परन्तु रोक लगाने से पहले और बाद में सरकार ने इन डांस बारों में काम करने वाली लड़कियों के पुनर्वास और भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचा और न ही कोई ठोस कदम उठाया| जिसका नतीजा यह निकला कि राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट और बार संचालकों के हाथों मुँह की खानी पड़ी|

डांस बारों पर रोक लगाने के बाद यह सरकार का जिम्मा था कि इन बार में काम करने वाली लड़कियों को सरकारी/ गैर सरकारी संस्थानों में नौकरी दिलवाती और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करती| समाज हमेशा से मानकर चला आ रहा है कि इन बार में काम करने वाली लड़कियों का चरित्र और नैतिकता से कोई सरोकार नहीं होता है, इसलिए डांस बार के अलावा कहीं और काम करने से उनका यौन(वेतन) शोषण) न हो| लेकिन इन लड़कियों को समाज में पुन: स्थापित करना तो दूर सरकार इनके लिए आजीविका तक का प्रबंध न कर सकी|

दूसरी तरफ समाज के बुद्धिजीवियों और ठेकेदारों का मानना है कि इन बार बालाओं के पास, बार में नाचने के अलावा आजीविका कमाने के बहुत से साधन हैं परन्तु जब इन महानुभावों से विकल्पों के बारे में पूछा जाता है तो चरित्र और नैतिकता पर भाषण सुना देते हैं लेकिन स्पष्ट विकल्पों के बारे में कोई बात नहीं होती|

आज भारत में इंजीनियर, एमबीए, बी.एससी/बीए किए लोगों को नौकरी नहीं मिलती, ऐसे में इन अनपढ़ डांस बालाओं को कौन सी नेशनल/मल्टीनेशनल कम्पनी अपने यहाँ काम पर रखेगी, जब इन लड़कियों को समाज में कोई सम्माननीय स्थान नहीं प्राप्त है, लोग इन लड़कियों में मुँह पर इन्हें वैश्या बोलते हैं और यदि स्वयं कोई लघु उद्द्योग खोलने के लिए पैसे होते तो ये लड़कियाँ डांस बारों में नाचती हुई नज़र नहीं आती| सरकारी या गैर सरकारी बैंकें और संस्थान उन्हीं की मदद के लिए पैसा देती हैं जिनके पास पहले से पैसा होता है| परन्तु सरकार इनके पुनर्वास के लिए कोई कदम उठाना ही नहीं चाहती थी, जिसके चलते बहुत सी लड़कियों ने आत्महत्या कर ली और बहुत सी अपने परिवार के साथ भूखों मरने के लिए सड़क पर आ गई|

सरकार का डांस बार पर रोक लगाने का कदम बहुत हद तक स्वयं में वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने वाला था| जिन लड़कियों को अपनी और परिवार की आजीविका जुटाने का कोई साधन नहीं मिला वो मजबूर होकर वेश्यावृत्ति में आ गईं जबकि पहले वो सभी शराब परोसने और नाचने तक ही सीमित थी|

राज्य सरकार का यह कहना कि इन डांस बार से आम जनता का चारित्रिक एवं नैतिक पतन हो रहा है, कुछ ज़्यादा ही हास्यास्पद है| लगता है सरकार और उसके नुमाइंदों की आखों में दृष्टिदोष है या फिर काला चश्मा चढा है क्योंकि देश का फिल्मीस्तान मुम्बई ही है, जहाँ लगातार अश्लीलता युक्त पिक्चरें एवं गाने बन रहे हैं| मुम्बई सरकार को फिल्मों के माध्यम से परोसी जा रही अश्लीलता नज़र क्यों नहीं आती| जब हीरोइनें मुन्नी, शीला या फेवीकोल जैसे गानों पर उत्तेजन और अश्लील इशारों के साथ नाचती हैं तब उन्हें सर्वश्रेष्ठ नायिका का पुरस्कार मिलता है वही दूसरी तरफ़ यही गाने डांस बार में बजते है तो अश्लीलता का ठप्पा चस्पा कर दिया जाता है|

बड़े पर्दे की बात करें तो कटरीना, करीना से लेकर राखी, पूनम पांडे जैसी हर हिरोइन नंगेपन पर उतारू है| सलमान, शाहरुख हर सीन में अपनी शर्ट उतारे फेंकते हैं और इमरान हाशमी टाइप लोग तो नायिका के होंठ तक चबा डालते हैं| इंटरनेट पर हिरोइनों के न्यूड वीडियो और फ़ोटोआसानी से उपलब्ध हैं| वही टीवी पर हर सीरियल में सुहागरात के सीन पूरी तन्मयता से शूट करके दिखाए जा रहे हैं| जिसे युवाओं के साथ-साथ बच्चे और बड़े-बूढ़े भी पूरे परिवार के साथ इनके नंगेपन को देखने को मज़बूर हैं| ऐसे में सरकार द्वारा अश्लीलता को लेकर निर्धारित गाइडलाइन कहाँ?

सभी जानते हैं फिल्म उद्द्योग में आने वाली दस में से आठ लड़कियों का यौन शोषण होता है| फ़िल्म में छोटे से रोल के लिए एक नई लड़की को कितने ही लोगों को खुशकरना होता है| मिस इंडिया/वर्ल्ड और इसके जैसी ही अन्य सौंदर्य प्रतियोगितायें न जाने कितनी ही बार विवादों में घिरती है| लेकिन वहाँ सरकार कुछ नहीं बोलती और न कोई कार्यवाही होती है|

मेट्रो शहरों में संचालित मसाज पार्लर, फ्रेंडशिप क्लबों में अमीर घरानों के लड़के-लड़कियाँ होती हैं जो आजीविका के लिए कम मौज-मस्ती के लिए ज़्यादा जाते हैं इसलिए सरकारें और पुलिस दोनों ही चुप्पी साधे रहती हैं| बड़े बड़े राजनेताओं के घर पार्टियों में क्या होता है!!! ये किससे छुपा है| यूँ ही सेक्स रैकेट संचालकों की डायरियों में इन नेताओं और अफसरों के नंबर नहीं होते|

यदि सरकार और पुलिस समाज के चारित्रिक एवं नैतिक उत्थान के लिए कटिबद्ध है तो उसे शराब और गुटखा बनाने वाली कंपनियों पर रोक लगानी होगी| फिल्मीस्तान द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता को रोकना होगा| इंटरनेट पर उपलब्ध असमाजिक सामग्री को हटाना होगा|

अफ़सोस है... मुम्बई सरकार बार बालाओं के पुनर्वास और उनकी आजीविका के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई परन्तु इतनी उम्मीद सरकार और पुलिस से कर ही सकते है कि वो हाल में लाइलेंस के साथ खुलने वाले डांस बारों पर पैनी नज़र रखेगी, जिससे बार में अश्लीलता न परोसी जा पाए और न ही लड़कियों को वेश्यावृत्ति की ओर धकेला जाय|




Sunday 12 May 2013

सोशलमीडिया पर छाए राष्ट्रभक्त


भारत अगले युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार है, जहाँ तक मैं देख रही हूं युद्ध होने की पूरी सम्भावनाएँ भी अपनी चरम पर हैं और लाख कोशिशों के बावज़ूद, भारत यह युद्ध रोकने में सफल नहीं होगा और इस बार उसकी हार सुनिश्चित है क्योंकि इस बार भारत, अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश या चीन से नहीं बल्कि अपने ही देश और उसमें रहने वालों से लड़ने वाला है|

आजकल सोशलमीडिया खासकर फेसबुक पर स्वघोषित देशभक्तों एवं भारतीय संस्कृति एवं धर्म के रक्षकों की संख्या में दिनोंदिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है| घण्टों फेसबुक पर बैठकर समाज सुधारने पर ज़ोर दे रहे हैं| हर व्यक्ति स्वयं को दूसरे से ज़्यादा श्रेष्ठ देशभक्त एवं महान समाज-सुधारक सिद्ध करने में प्रयासरत कर हैं| ये नवनिर्मित, स्वनिर्मित देशभक्तों प्राय: “देश की मौजूदा हालात, मोदी का भावी एजेंडा, पश्चिमी देशों की कुसभ्यता, युवा पीढ़ी का पथभ्रष्ट होना एवं सम्पूर्ण नारी-जाति के कर्तव्य” पर लम्बी लम्बी बातें और वक्तव्य देते मिलते है.
और सबसे ज़्यादा भाषण तो धर्म पर देते हैं, जबकि न तो किसी को कुरआन के “क” का पता मालूम है और न किसी को गीता के “ग” का ज्ञान है, लेकिन धर्म पर लंबी चौड़ी बातें करने में ये लोग कहीं से पीछे नज़र नहीं आते. सबके हाथों में मज़हबी झंडा है| इंसानियत तो ना जाने कहाँ खो गई हैं|

सिर्फ़ फेसबुक पर ही इतनी धर्म चर्चा होती है., जबकि वास्तविक जीवन में किसी के पास वक्त नहीं है धर्म और मज़हब के नाम पर लड़ने के लिए|  वास्तविक जीवन में तो लोगों को सिर्फ़ रोटी की चिंता है क्योंकि रोटी से ही पेट भरता है धर्म के प्रवचन से नहीं| आम जनता को कोई फ़र्क नहीं पड़ता, किसने वंदे मातरम बोला और किसने टोपी पहनी| न जाने कितने कारखाने हैं जो हिन्दूओं के है लेकिन काम मुसलमान करते हैं और न जाने कितने हिन्दू मजदूरों और कर्मचारियों के मालिक मुस्लिम समुदाय से हैं| लेकिन उन मजदूरों और कर्मचारियों को इससे फ़र्क नहीं पड़ता, क्योंकि उनके लिए सिर्फ़ दो वक्त की रोटी ही उनका ईमान और धर्म है|

ये सम्प्रदायिक मसले सिर्फ़ ठूंस ठूंस के भरे पेटों और ऊँची गद्दी पर बैठे लोगों का “टाइम पास” है, चाहें वो मोहन भागवत हों या अकबरुद्दीन ओवैसी| ये सिर्फ़ सोची समझी राजनीति के तहत सिर्फ़ भड़काऊ भाषण देते हैं और भाषण देकर बुलेटप्रूफ कारों में बैठकर निकल जाते हैं और छोड़ जाते हैं हमें लड़ने मरने के लिए... आज़ादी के बाद देश में न जाने कितने ही सम्प्रदायिक दंगे हुए लेकिन आज तक किसी नेता या किसी बड़े रसूखवाले का कोई परिजन मरा? 
ये नेता और रसूखदार सिर्फ़ अपनी गद्दी और सत्ता के लिए लड़ाते हैं धर्म के नाम पर, हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर... वंदेमातरम और सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ के नाम पर| भारत में केवल यही मुद्दे बचे हैं जिन पर लड़ाकर सत्ता पाई जा सकती है, इसलिए ये हमें राम और रहीम के नाम पर एक दूसरे का गला काटने को बोलते हैं| हमें ज़्यादा खतरा पाकिस्तान और चीन जैसे दुश्मनों से नहीं क्योंकि देश में हिंदू-मुस्लिम के नाम पर लड़ने वाले नामुरादों से है|| जब घर में अपनों के बीच ही दुश्मनी सिर उठाने लगे तो बाहरी दुश्मनों की क्या ज़रूरत ???

किसी को कोई चिंता नहीं कि देश में लड़कियाँ सुरक्षित नहीं हैं, बाल-मजदूरी अपने चरम है. शहरों हो या गाँव कहीं सड़क नहीं, लोगों को पीने के लिए पानी नहीं मिल रहा है. किसान फाँसी लगा रहा है. सीमा पर खड़ा जवान बेकार में शहीद हो रहा है. गरीब बच्चे न तो भर पेट खाना खा रहे और न स्कूल जा रहे हैं. भ्रष्टाचार चरम पर है. चारों तरफ  लूट घसोट पड़ी... सरकार भ्रष्टतम स्तर के नीचे जाकर भ्रष्टाचार में लिप्त है.

लेकिन इन मुद्दों पर किसी की कोई ज़बान नहीं खुलती और अगर कोई कुछ बोलता भी है तो सिर्फ़ इतना कि ये सरकारी मुद्दे है, सरकार ध्यान नहीं दे रही है. सरकार भ्रष्ट है.

भारतीयों के पास सिर्फ़ धर्म के नाम पर लड़ने और लड़ाने का कॉपीराइट है. शायद इन मुद्दों पर लड़ने के लिए भाड़े की जनता को बुलाना होगा क्योंकि देश के वासियों को हिन्दू-मुस्लिम बनने से ही फुर्सत नहीं है... भारतीय क्या बनेगें|
हिंदू-मुस्लिम का मामला चाहें शांत भी हो जाए पर कुछ "पेज" के एडमिन और कुछ "स्वघोषित राष्ट्रभक्त" जब देखों तब हवा देते हैं| अभी तक लड़ने के लिए अयोध्या का राम मंदिर था, जिसपर हर नेता, हर आदमी सियासत खेल रहा था| उसका मामला अभी शांत नहीं हुआ कि “ताज महल” पर झंडा लेकर खड़े हो गए| चलो मान लेते हैं कि आज का ताज महल किसी जमाने में “तेजोमहालय” था... तो अब क्या करोगें? राम मंदिर की तरह इसे भी तोड़ डालोगे? चलो तोड़ भी दिया तो क्या वहाँ "ताज महल" जैसा भव्य शिवालय बनवा पाओगे? किस में है इतनी औकात... बीजेपी में, मोदी में या फिर फेसबुक पर बैठे तुम लोगों में???

जो जहाँ जैसा है उसे वही रहने दो, बंद करो ये नौटंकी, बंद करो लोगों को भड़काना| अडवाणी, ओवैसी, बर्क, भागवत जैसे लोगों को छोड़ो और उनके दिखाए धर्म को छोड़ो और आगे बढ़ो देश के लिए, देश की शांति के लिए... चैन-ओ-अमन के लिए हाथ उठाओ न कि किसी के कत्ल के लिए!
देश के लिए कुछ करना है तो जमीन पर आओ, सरहदों पर खड़े होकर रक्षा करो देश की सीमाओं की| देश की राजनीति से भष्टाचार मिटाने का प्रयास करो... न कि फेसबुक पर बैठकर लम्बे लम्बे सम्प्रदायिक भाषण देंकर स्वयं को बुद्धिमान, धार्मिक एवं राष्ट्रभक्त घोषित करने झूठी कोशिश| दूसरों की लिखे लेखों को अपने नाम से चिपकाना बंद करो| जनता को जागरूक करो न कि पथभ्रष्ट!!! आप अगर अभी नहीं चेते तो इसका खामियाजा आपके साथ आपकी आने वाली पीढ़ी को भी झेलनी पड़ेगी|

जिसे देखो राष्ट्रभक्त बना हुआ है... भारत माता का झंडा ऊँचा किए हुए है... ऐसे बोलते और दिखाते है जैसे वो ही भारत के भाग्यविधाता है,,,, भारत माता के बाप है... इस टाइप की नौटंकी बंद करो|

अरे बाप बाद में बनना... पहले ढंग की औलाद ही बन जाओ...!!!
कुछ तो शर्म करो!!!

Monday 22 April 2013

हे राम !


राम नवमी के पावन अवसर पर भगवान श्रीराम का जन्मोत्सव, सम्पूर्ण भारत में पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाया गया| हमेशा की तरह पूरा वातावरण राममय था, चारों ओर राम नाम की गूँज थी परन्तु हैदराबाद का नज़ारा बिल्कुल अलग था| पूरे शहर में राम का बोलबाला था| चारों ओर राम के चित्र लगे हुए थे, यहाँ तक कि लोगों के वस्त्रों पर राम का नाम और प्रतिबिम्ब अंकित था| राम सदैव जनमानस के इष्टदेव हैं इसलिए हैदराबादी हिंदुओं का उनसे इस प्रकार जुड़ना सामान्य स्थिति प्रतीत हो रही है परन्तु यह बात जितनी सरल दिख रही है उतनी सामान्य है नहीं|

राम भक्तों का हैदराबादी सरज़मीं पर हिन्दू-शक्ति का प्रदर्शन मात्र राम भक्ति नहीं थी; यह प्रदर्शन अकबरुद्दीन ओवैसी के “राम विरोधी” घटिया भाषण से उत्पन्न रोष का प्रदर्शन था| प्राय: राम भक्त हिन्दू ऐसा प्रदर्शन नहीं करते हैं| भारत एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है और देश में प्रचलित सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त हुई हैं| ऐसे में किसी विशेष धर्म-सम्प्रदाय के लोगों को कोई अधिकार नहीं है कि वह हिन्दू धर्म के इष्टदेव राम का अपमान करें| जैसे मुस्लिम समाज अपने पैगम्बर मुहम्मद साहब की शान में हुई कोई गुस्ताख़ी बर्दाश्त नहीं करती ठीक वैसे ही हिन्दू जनमानस भी अपने इष्ट राम का अपमान सहन नहीं कर सकती|

इस शक्ति प्रदर्शन में राम भक्ति के साथ साथ राजनैतिक प्रभाव भी स्पष्टरूप से परिलक्षित हो रहा था| यह नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का आवाहन भी था| महीने भर पहले भी इलाहाबाद संगमतट पर राम मंदिर पर राजनीति खेलने के लिए अखाड़ा सजाया गया था| देश भर के लाखों साधु-संतों के बीच विहिप, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के शीर्षस्थ नेता कुम्भ के पावन पर्व पर राम के नाम पर देश की सत्ता का बाज़ार गर्म करने की पूरी कोशिश मे जुटे थे|

देश में राम के अलावा बहुत कुछ है जिस पर मुख्यधारा के नेताओं को अपनी राजनीति खेलनी चाहिए| आखिर राम के नाम पर इतनी सियासत क्यों होती है जबकि राम को कभी भी राजसत्ता का लोभ और मोह था ही नहीं| देश के राजनीतिज्ञ हमेशा अपने फ़ायदे के लिए राम और राम मंदिर पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते आ रहे हैं| राम जनसाधारण के राजा और स्वामी थे पर देश के नेताओं को राम सत्ता पाने का आसान सा ज़रिया नज़र आते है|

सन् १९९१ में भाजपा ने सत्ता पाने के लिए जो आग देश की राजनीति में लगाई थी वह आग आज भी देश को सीधे तौर पर जला रही है| भाजपा, विहिप और संघ अगर राम मंदिर बनवाने के लिए इतना ही कटिबद्ध है तो २० साल की राजनीति में वह मंदिर क्यों नहीं बनवा पाई है? सच तो यह है कि राम मंदिर किसी के लिये भी कुछ मायने नहीं रखता है| हर किसी के लिए राम मंदिर सिर्फ एक साधन है हिन्दू वोट पाने का, सत्ता में आकर अपना उल्लू सीधा करने का| राम के साथ आज से बीस साल पहले जो कुछ घटित हुआ था वही आज भी घटित हो रहा है| राम भक्ति भावना से कहीं ज़्यादा राजनैतिक हित के लिए याद किए जाते हैं| बार बार मुख्यधारा के नेता हिन्दू जनता को राम मंदिर का लॉलीपॉप थमा कर अपना वोट बैंक मजबूत करने की भरसक कोशिश करता है पर यह भूल जाता है कि सत्ता, राम के नाम पर वोट माँगने से नहीं बल्कि देश और जनता के लिए कुछ करने से मिलती है|

भारत अभी भी १९९१ वाली विचारधारा से निकल नहीं पाया है लेकिन उसे अब इतना मालूम है कि चाहें कोई भी राजनीतिक दल वादा करे या कोई परिषद/संघ आश्वासन दे... अयोध्या विवादिद स्थल पर कभी भी राम मंदिर नहीं बनने वाला| यह सारे हथकंडे सिर्फ सत्ता पाने के लिए अपनाए जा रहे हैं| १९९१ के दंगे के बाद भाजपा सीधे तौर पर गैर हिन्दू दल की अपनी राजनीतिक छवि साफ़ करती नज़र आती है और अब वह कभी खुलकर राम मंदिर पर कुछ बोलने से लगातार बचती है| अटलबिहारी सरकार ने चुनाव से पहले देश की हिन्दू जनता को राम मंदिर बनवाने का पूर्ण आश्वासन दिया था परन्तु सत्ता मे आते ही गठबंधन की मज़बूरी बता कर वह अपने वादे से मुकर गई|

राम नवमी को राम के चित्र के साथ मोदी का चित्र छपे होने का सिर्फ़ एक ही मतलब था कि आज दोबारा से  भाजपा राम के नाम पर वोट भुनाने की जुगत में है और पूरी तरह अपने मक़सद में कामयाब होती नज़र आ रही है, क्योंकि हिन्दू जनता को बुनियादी ज़रूरतों से कोई मतलब नहीं है| मोदी को राम मंदिर के बजाय बुनियादी जरूरतों पर ध्यान देना चाहिए और उन ज़रूरतों के नाम पर वोट मांगने चाहिए लेकिन बाजपेयी सरकार की तरह यह वादें झूठे नहीं होने चाहिए| यहाँ कांग्रेस की बात करना ही बेकार है क्योंकि वह किसके नाम पर वोट मांगती है और किसे कुर्सी पर बिठाती है कुछ पता ही नहीं चलता| २००० के चुनावों कांग्रेस ने सारे वोट राहुल के चेहरे का इस्तेमाल कर हथियाएं थे और बैठा दिया मनमोहन सिंह को, जिसको देखना तो दूर किसी ने कभी उनका नाम भी न सुना था| उसके बाद का चुनाव ईवीएम में सीधे तौर पर धांधली करके घसीट लिए और २०१४ में भी वह यही हथकंडा अपनाने वाली है... ऐसे में उससे निपटना अन्य पार्टियों और जनता के लिए एक टेढ़ी खीर होगी|

हिंदुओं के जैसा ही हाल मुसलमानी जनता का है, आज़ादी के बाद से वह शाही इमामों के इशारों पर लगातार नाचती आ रही है| शाही इमाम जिस पार्टी को वोट देने को कहता है, पूरी की पूरी मुस्लिम जनता भेड़चाल से चलते हुए उसी पार्टी के चुनाव-चिन्ह पर अँगूठा टिकाती है| शाही इमाम को जहाँ से खाना मिल जाता है वह मुस्लिम जनता का पूरा वोट उसके घर गिरवी रखवा देता है| मुस्लिम जनता; कांग्रेस और सपा के बीच होती रस्साकशी में ही उलझी हुई है| देश में बराबरी के दर्जे पर रहते हुए “अधिकार दो” की माँग करती रहती है|

जब भारत एक लोकतांत्रिक देश है तो ऐसे में शंखनाद करके और मीनारों पर चढ़कर “उसे वोट दो उसे वोट दो” क्यों चिल्लाया जा रहा है| इन शंखनाद करने वालों और शाही इमामों की वजह से सत्तारूढ़ पार्टी निरंकुश हुई जाती है| जनता का सरकार और उसके नुमाइदों पर कोई ज़ोर रह ही नहीं जाता| इन बिचौलियों की वज़ह से सत्तारूढ़ पार्टी हर दूसरे दिन घोटाले करती और डकार भी नहीं मारती|

आज भारत की मुख्य समस्या हिन्दू-मुस्लिम नहीं बल्कि शिक्षा, सुरक्षा, भ्रष्टाचार एवं बेरोजगारी है लेकिन देश के मुख्यधारा के नेता बुनियादी ज़रूरतों को धर्म के नाम पर दरकिनार कर अपना उल्लू सीधा कर रहे है और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि जनता सब कुछ जानते हुए भी “गाँधी के बंदरों” की भांति आचरण कर रही है
देश की मौजूदा हालत बिल्कुल भी अच्छी नहीं है... अंदर और बाहर दोनों मोर्चों पर सरकार पिछले १० सालों में पूर्णरूपेण असफ़ल रही है परन्तु विपक्ष में बैठी भाजपा हिजडों के जैसा बर्ताव कर रही है| क्योंकि उसे पता है कि इस बार अगर कांग्रेस ने वोटों में धांधली न की तो उसकी ही पार्टी सत्ता में आने वाली है| ऐसे में बेजा सिरदर्द क्यों लिया जाय|

मुझे लगता था कि राम के नाम पर हिन्दू जनता एक बार वोट दे सकती है, दो बार दे सकती है पर बार बार नहीं दे सकती परन्तु मुझे लगता है कि मै गलत हूँ...!!! भारत में धर्म के नाम पर सब बिकता है, चाहें वह ईमान हो या चाहें इन्सान हो| धर्म के नाम पर जनता अपनी आँखें अपने ही हाथों से फोड़ सकती है| कांग्रेस हो या भाजपा या फिर कोई और पार्टी ये धर्म के नाम पर वोट माँग कर हमेशा सत्ता पर काबिज़ रहेगीं| पार्टियाँ कुछ करें या न करें उन्हें राम और अल्लाह के नाम पर वोट मिलते रहेगें|

Saturday 13 April 2013

मधुबाला... एक इश्क़ एक जुनून

कलर्स चैनल के प्राईम टाइम पर आने वाला सीरियल "मधुबाला... एक इश्क़ एक जुनून" मैं रोज़ देखती हूँ, इस धारावाहिक की पटकथा, कलाकरों की संवाद अदायगी और अभिनय की जितनी तारीफ़ की जाय, उतना कम है| धारावाहिक के मुख्य पात्र "मधुबाला और ऋषभ कुंद्रा उर्फ आर.के." ने सीरियल को एक नया आयाम दिया है| यह धारावाहिक एक नारी के आत्मसम्मान और पुरुष के अंहकार का टकराव पर आधारित है| टीवी पर आने वाले अधिकतर धारावाहिकों में नारी, पुरुष के अंहकार के चलते स्वयं के आत्मसम्मान को नकार देती है या कमतर आँकती है परन्तु इस धारावाहिक में मधु का आत्मसम्मान हमेशा आर.के. के अहं से टकराता है पर टूटकर बिखरता नहीं है|

हालांकि जब इस सीरियल के प्रीव्यू प्रोमोशनल विज्ञापन आते थे तो मुझे बहुत कोफ़्त होती थी, मुझे लगता था... टीवी वाले न जाने कैसे कैसे सीरियल शुरू कर देते हैं, 'फुलवा" खत्म हुआ तो "मधुबाला" शुरू कर दिया| एक भी ढंग का सीरियल नहीं देते हैं| इसके शुरू होने से पहले ही मैंने इसको "घटिया" नाम दे दिया था और बाकी बची रही-सही कसर इसके शुरुवाती एपिसोड्स ने पूरी कर दी| मैंने इसको न देखने का पूरा पक्का इरादा कर लिया था लेकिन मेरे घर में सब मन से "मधुबाला" देख रहे थे और मैं मन मार कर, मजबूरी में देख रही थी.... कभी देखा और अक्सर नहीं देखा पर समय के साथ साथ मधुबाला की पटकथा सशक्त और संवाद दमदार होते गए और मुझे इस धारावाहिक में रोमांच आता गया| आज मैं इसको नियमित देख रही हूँ| 

"पहले  'आर.के. .... द सुपरस्टार' मधुबाला के मारे हुए एक थप्पड़  बदला लेने के लिए मधुबाला से अधूरी शादी करता है, उससे प्यार करने का झूठा नाटक करता है और जब मधुबाला सच में आर.के. की मुहब्बत में गिरफ़्त हो जाती है तो वह उसे छोड़ देता है| मधुबाला को अपनी पत्नी मानने से इनकार कर देता है और जब छोड़ी हुई मधुबाला की दोस्ती एक अन्य शख़्स "सुल्तान" से हो जाती है तो आर.के. के अंदर मरा हुआ पतिभाव जाग उठता है| अब मधु को फिर से पाना चाहता है... वह बार बार मधुबाला से एक ही प्रश्न करता है "क्या मधु आज भी सिर्फ़ उससे ही प्यार करती है" और मधु के हाँ कहते ही उसके चेहरे पर अजीब सी खुशी छा जाती है, अजीब-सा संतोष उसके पूरे असंतोष मन पर काबिज़ हो जाता है" यह थी अब तक की फिल्मांकित "मधुबाला... एक इश्क एक जुनून" की पटकथा|

अधिकतर धारावाहिक औरतों को नकारात्मक दृष्टिकोण से पेश करता है|
परन्तु पहली बार यह धारावाहिक बहुत बेहतर तरीके से पुरुषों के अंदर बसी असुरक्षा, अहं, कुंठा और स्वार्थ का चित्रण कर रहा है| पुरुष जब भी किसी औरत से प्रेम या प्रेम का झूठा नाटक भी करता है तो उसे वह औरत "कोरी" ही चाहिए| उसे आज २१वीं शताब्दी में भी बर्दाश्त नहीं होता है कि उसकी ज़िन्दगी में आने वाली औरत को पहले किसी दूसरे पुरुष ने छुआ हो और ज़िन्दगी से बाहर जाने के बाद उस औरत को कोई दूसरा आदमी छुए| पुरुष एक औरत के होते हुए भी हर औरत पर अपना हक़, अपनी मर्दानगी जता सकता है लेकिन यही काम अगर औरत करे तो उसके अहं को, उसके पुरुषत्व को ठेस लगती है| उस औरत को बज़ारू और वैश्या कहने लगता है|

पति शादी से पहले के सम्बन्ध बहुत गर्व से साथ पत्नी के साथ बताता  है, क्योंकि बहुत हद तक ये सम्बन्ध उसकी मर्दानगी(अक्सर कायरता क्योंकि मर्द होता तो उसी से शादी करता, जिससे प्यार या प्यार का नाटक किया) को दर्शाते हैं और उसे यह भी अच्छी तरह मालूम होता है कि उसकी पत्नी उसे छोड़कर नहीं जा सकती और अगर कभी छोड़ने की सोचे भी तो समाज, परिवार उसे छोड़ने नहीं देगा| 

परन्तु अगर कोई लड़की अपने प्रेम और प्रेमी की बातें पति को बता दे... तो पति इसे हज़म नहीं कर पाता है| उसे स्वीकर नहीं कर पाता है| हर वक्त उसे ताने मारता है और शक़ करता है| उसे लगता है उसे "जूठन" मिली है| पति सारी ज़िन्दगी पत्नी को अपना नही पाता है| उस पर बदचलन होने का ठप्पा भी लगा देता है| गाहे-बगाहे पत्नी की बेइज्जती करता फिरता है और पत्नी को बुरा मानने का अधिकार भी नही देता है परन्तु पत्नी कभी भी पति का अपमान या विरोध नहीं कर सकती... क्योंकि पति परमेश्वर है, कर्ता-धर्ता है| 

पुरुष हमेशा दोहरी मानसिकता के साथ जीते हैं| स्वयं के लिए सात खून माफ़ पर....औरत के लिए, नज़र उठा कर देखना भी गुनाह है| आज के परिवेश में भी स्त्री-पुरुष बराबर नहीं है... औरत आज भी दोयम दर्ज़े पर खड़ी है  और शायद ही भविष्य में कभी उसे  पुरुष के बराबर का दर्ज़ा मिले| पुरुष कैसा भी हो वह स्वीकार्य है पर स्त्री का सती-सावित्री होना अपने समाज की पहली और आख़िरी प्राथमिकता है|

Thursday 4 April 2013

अंधकार में छुपा प्रकाश


अंधकार का नाम या वर्णन आते ही हमारा मन-मस्तिष्क एक अजीब से कालेपन से जूझने लगता है और हम इस स्याह परिदृश्य से बाहर निकलने के लिए स्वयं से जद्दोजहद करने लगते है| हर किसी को अंधकार से ईर्ष्या है, हम में से कोई भी अंधकार में नहीं रहना चाहता है| सबको प्रकाश चाहिए, उजाला चाहिए| हमारे देश में अनेक महापुरुष हुए हैं उनका मानना है कि प्रकाश ही सत्य है, जीवन है, जीवन का आधार और उद्देश्य है, मोक्ष है| प्रत्येक मनुष्य को अपना सारा जीवन सत्य की खोज में व्यतीत करना चाहिए| चाहें गौतम बुद्ध हों या स्वामी विवेकानंद, नानकदेव जी हों या सम्राट अशोक सबने अपना जीवन प्रकाश की खोज में लगा दिया और बहुत हद तक उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर भी मिले, उन्हें सत्य के दर्शन हुए, प्रकाश को समीप से पहचाना| परन्तु किसी ने भी अँधेरे के आस्तित्व पर कभी प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया|

अंधकार तो सम्पूर्ण ब्रह्मांड में युगों युगों से व्याप्त है, हर उस जगह उसका बसेरा है जहाँ प्रकाश की पहुँच नहीं है| अंधकार हमारे वातावरण, हमारे अंतस में है| जब चारों ओर अंधकार का अधिकार है तो क्यों हम उसे पहचानने से मुकर रहे हैं| क्यों उसके आस्तित्व पर अंगुली उठा रहे हैं| अंधकार की विशेषताएँ क्यों नहीं देखते हैं| हर खोटी चीज़ में अच्छी चीज़ के समान ही गुण होते है, हमें बस अपने विश्लेषण का दृष्टिकोण बदलना होगा| अंधकार से हम इतना डरते क्यों करते हैं? काले से इतनी नफ़रत क्यों करते हैं... जबकि काला तो अपना कन्हईयाँ भी है| यह अंधकार न होता तो शायद कंस के बंधन से कृष्ण को मुक्त करना असम्भव था| यमुना भी काली होते हुए जीवनदायनी है| चाँद-चाँदनी का मिलन भी रात के घनेरे में होता है, जो जीवन का मूलाधार है| भौंरा भी काला है पर कुमुदिनियों का प्राण-प्यारा है|

अक्सर लोग कहते हैं कि कभी प्रकाश और अंधकार के मध्य युद्ध हुआ था और प्रकाश जीत गया, तभी से प्रकाश  सूर्य के रथ पर सवार होकर अंधकार का सर्वनाश करने के लिए निकलता है और अंधकार अपना आस्तित्व बचाए रखने के लिए कोनें, कोटरों, झुरमुटों में छुप जाता है परन्तु मुझे तो यह कथा कपोलकल्पित लगती है क्योंकि जब ब अंधकार आता है तब प्रकाश की कोई किरण दूर दूर तक नज़र नहीं आती है| चारों तरफ़ घनेरा होता| अँधेरा तो प्रकाश को कोनों कोनों से खदेड़ देता है| जबकि प्रकाश को मालूम होता है कि अँधेरा कोटरों में छुपा है पर उसकी हिम्मत ही नहीं होती कि वह अंधकार से से दो-दो हाथ करने के लिए कोटरों में जा सके|

वैज्ञानिक तथ्यों का आलम्बन लें या व्यवहारिक कृत्यों का, दोनों ही सिद्ध करते हैं कि प्रकाश को स्वयं के विस्तार के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है, वह एक सीधी दिशा में ही चलता है, मार्ग में अवरोध आ जाने पर उसका प्रसार-प्रचार अवरुद्ध हो जाता है| प्रकाश को अपना आस्तित्व बचाए रखने के लिए सूर्य और दीये का सहारा चाहिए जबकि अंधकार अपनी मनमानी गति से चहुँदिश बढ़ता है क्योंकि वह आत्मनिर्भर है, मार्ग में हजारों अवरोधों के बावज़ूद दोनों तरफ़ समानरूप से स्याह और सघन रहता हैं| बादल, हवा एवं अन्य कारक प्रकाश के साथ जैसा छल करते हैं वैसा छल वो अंधकार के साथ नहीं कर पाते क्योंकि अंधकार आत्मनिर्भर है|

विश्व के महानतम महापुरुषों ने कभी भी अँधेरे के आस्तित्व को नहीं नकारा बल्कि उन लोगों ने अपने अंतस और बाह्य मौज़ूद अंधकार को पहचाना| उनकों मालूम था कि सृष्टि से अँधकार का समूल नाश नहीं किया जा सकता| वह भी प्रकाश की तरह ब्रम्हांड का अकाट्य सत्य है, इसलिए उसको मिटाने का नहीं वरन कम करने का प्रयास किया| उन्होंने अथक प्रयास किया, अँधकार को जानने के लिए, पहचानने के लिए| उसकी थाह पाने के लिए उसकी गहराई में उतरे और जितना वो गहराई में जाते गए, उन्हें उनका ही विशाल प्रकाश-द्वार मिलता गया क्योंकि प्रकाश-द्वार, अंधकार के मुँहाने पर ही खुलता है|

अंधकार और प्रकाश एक सिक्के के ही विपरीत पहलू हैं| सिक्के के सिर्फ़ एक पहलू का कलेवा करके उसके सहारे आगे नहीं बढा जा सकता| हम जितनी तत्परता से प्रकाश की खोज कर रहें हैं, उतनी ही उत्सुकता से हमें स्वयं को अंधकार में विलीन करना होगा| कोई भी मनुष्य अंधकार को नहीं जानना चाहता, शायद वह काला है, सघन है, घोर है परन्तु हम यह कैसे भूल सकते है कि प्रकाश की भांति ही अँधकार भी पृथ्वी का अस्तित्व बनाए रखने में सराहनीय भूमिका अदा कर रहा है| हमें अंधकार की थाह पानी ही होगी, उसकी गहराई नापनी होगी| प्रकाश के आस्तित्व को पाने के लिए अँधेरे को आत्मसात करना ही होगा| बिना अंधकार को जाने हम कभी भी प्रकाश को प्राप्त नहीं कर सकते| 

Monday 18 March 2013

मेरा नाम जोकर...

कल मैं अपने एक रिश्तेदार के घर गई थी, उनके सात माह के गोल-मटोल बच्चे से मिलकर बहुत खुशी हुई| मैंने उनसे बच्चे का नाम पूछा तो उन्होंने बहुत गर्व से बताया “अथर्व है इसका नाम, वेदों के नाम पर रखा है”| उनके पूरे परिवार को यह नाम बहुत पसंद आया है... पर सच बताऊँ मुझे ये नाम रत्ती भर भी पसंद नहीं है क्योंकि एक तो यह नाम बोलने में बहुत ही कठिन है, दूसरा इसका कोई सार्थक अर्थ नहीं है| मैंने बहुत लोगों को देखा है वो एक अलग नाम रखने की होड़ में अपने बच्चों के नाम बहुत ही अजीब रख देते हैं, जिनका कोई अर्थ नहीं होता है|

ऐसे ही एक माता-पिता ने अपने बच्चे का नाम रखा “देवस्य”, जब मैंने उनसे “देवस्य” का अर्थ जानना चाहा तो उन्होंने बताया- “आप गायत्री मंत्र जानती हैं न... उसमें आता है देवस्य”| जब मैंने उनको बताया कि देवस्य का शाब्दिक अर्थ “देवताओं का” होता है| तो आप बताइये कि आपका बेटा देवताओं का क्या है... “आशीर्वाद है, श्राप, हाथ, पैर, मुँह, नाक” क्या है देवताओं का? पर उन्हें कुछ समझ में नहीं आया और वो बार बार गायत्री मंत्र सुनाते रहे और मैं चुप हो गई|

कुछ लोग तो अपने हिन्दी ज्ञान का पूर्ण उपयोग केवल अपने बच्चों के नाम रखने में करते हैं| तभी “संज्ञासूचक” शब्दों को छोड़ कर “क्रियासूचक” शब्दों पर अपने बच्चों के नाम रख देते हैं जैसे- संघर्ष, मनन, रचित आदि| ये नाम अपने आप बहुत अजीब हैं| संघर्ष नाम का बच्चा हमेशा अपने जीवन के हर स्तर पर संघर्ष ही करता रहेगा|

कुछ बच्चों के नामों का कोई अर्थ नहीं होता है जैसे “ स्तम्भ, प्रवेश, पुष्कर, क्रांति” आदि नामों(शब्द) का हिन्दी शब्दकोश में कोई सार्थक अर्थ नहीं दिया हुआ है| फिर भी माता-पिता कुछ नया करने के चक्कर में अपने बच्चों के ये नाम रख रहे हैं|

बच्चों के नाम रखने में एक वर्ग और हैं जो लीक से हट कर नाम रखने में विश्वास रखता है, उन्हें प्रचलन और वास्तविकता को उलटपलट करने में बहुत मज़ा आता है... जैसे “राधा” नाम की लड़की के बेटे का नाम “कृष्ण/कन्हैया”, “आदित्य” की बेटी का नाम “अदिति”| जबकि सबको पता है कि राधा-कृष्ण प्रेमी-प्रेमिका के नाम है और अदिति से आदित्य उत्पन्न हुए है... न कि आदित्य से अदिति, पर लोग बिना कुछ सोचे समझे जो नाम/शब्द अच्छा लगा... उठाकर रख दिया अपने बच्चे के ऊपर|

कुछ लोगों को शब्दों/नामों का अर्थ ही नहीं पता होता, फिर भी वो नाम अगर प्रचलन में हैं तो उसे अपने बच्चे का नाम बना देते हैं- जैसे “अनुष्का, ह्रितिक, आरव, आर्यन” आदि नाम हिन्दी सिनेमा से प्रेरित हैं पर इन नामों का अधिकतर लोगों को सार्थक अर्थ नहीं पता है, फिर भी ये नाम वो अपने बच्चों पर चस्पा कर देते हैं| 

“अगस्त्य, आयुष्मान, प्रणव, जाह्नवी, क्षितिज” आदि ऐसे नामों के अर्थ तो सार्थक हैं पर बोलने और लिखने दोनों में ही बहुत कठिन हैं... ये नाम प्राय: बच्चे और उनके अभिभावक ही नहीं बोल पाते हैं|
क्षितिज= वह स्थान जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते हुए से प्रतीत होते हैं, पर वास्तविकता में कभी मिलते नहीं है, इस अर्थ के अलावा इस शब्द का कोई और अर्थ नहीं है. एक दूसरे नज़रिये देखा जाय तो क्षितिज, पृथ्वी-आकाश के मिलन की तरह एक आभासी एहसास देता है| जो बच्चे का नाम रखने के लिए कतई उपयुक्त नहीं है|

हमें अपने बच्चों के नाम बहुत सोच-विचार कर रखना चाहिए क्योंकि सिर्फ नाम ही मृत्यु और उसके बाद तक साथ देता है| हमारा नाम ही हमारी मुख्य पहचान है| मनुष्य का आचरण बहुत हद तक उसके नाम पर भी निर्भर करता है| बच्चों के नाम बेशक़ असाधारण हो परन्तु उनके अर्थ हमेशा सार्थक और सरल होने चाहिए| जिन नामों को स्वयं बच्चा और उसके अभिभावक उच्चारण करने में सक्षम न हो उन्हें इन नामों से बचना चाहिये| अजीब से लगने वाले नाम कुछ समय तक ही अच्छे लगते है, पर जब स्कूल में दूसरे बच्चे इन नामों को लेकर बच्चे को चिढाते है या बच्चा अपना नाम नहीं बोल पाता है तब बच्चे का मनोबल स्वत: ही गिरने लगता है| उसे अपने नाम से चिढ़ होने लगती है| जब आप खुद ही अपने नाम का गलत उच्चरण करेगें तो आप दूसरों को गलत उच्चारण करने पर उसे टोक नहीं सकते हैं| इसलिए हमें अपने बच्चों के नाम सार्थक अर्थ वाले और सरल रखने चाहिए| 




Friday 1 March 2013

हर ढ़क्कन... ज़रुरी होता है!!!


ढ़क्कन हमारे दैनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है| हमारे आस-पास मौजूद हर डिब्बेनुमा चीज़ का अपना एक ढ़क्कन है| जो उस डिब्बे के अंदर रखी वस्तुओं को हमेशा बाह्य वातारण से सुरक्षित रखती है और सड़ने से बचाती है| सोचो अगर ढ़क्कन जैसी चीज़ न बनी होती तो हम कभी भी इत्र को भविष्य के लिए अपने पास सहेज कर नहीं रख सकते थे| पेन की निप को टूटने से कौन बचाता? और सबसे बड़ी बात अगर शक्कर के डिब्बे में ढ़क्कन नहीं होता तो सारी शक्कर चीटियाँ खा जाती और हम चाय के एक कप के लिए तरसते फिरते!

हम ढ़क्कन की उपयोगिता और आवश्यकता दोनों को नकार नहीं सकते हैं|
ढ़क्कन के बिना किसी डिब्बे की कल्पना ही नहीं की जा सकती है|  सच तो यह हैं एक ढ़क्कन विहीन डिब्बे  का पूरा आस्तित्व ही दाँव पर लग जाता है क्योंकि उसमें रखा समान वातारण से नमी सोखकर समान को खराब कर देता है| खुले डिब्बे में रखे समान पर अक्सर चूहे, बिल्ली, तिलचट्टे आदि हाथ साफ़ कर जाते हैं जिससे उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है| सिर्फ ढ़क्कन खो जाने की वज़ह से उसे बड़ी बेरहमी से रसोईघर से निकाल कर कचरे की पेटी में फेंक दिया जाता है| इसलिए ज़रुरी हो जाता है कि हर डिब्बा अपना ढ़क्कन बहुत संभाल के रखे|

ये तो बात थी रोज़मर्रा में इस्तेमाल आने वाले डिब्बों के ढ़क्कन की... पर कभी सोचा है कि हम भी एक डिब्बे की तरह हैं, हमको भी एक ढ़क्कन की ज़रूरत है! जो हमें बाहरी दुनियाँ से सुरक्षित रखे| हमारी क़ाबिलियत को खराब होने से बचाए| विपरीत परिस्थितियों में हमें टूटकर बिखने से बचाए| अक्सर लोग अपने ढ़क्कन को लेकर संजीदा नहीं होते हैं, उन्हें लगता है उन्हें किसी खास ढ़क्कन की ज़रूरत नहीं है,  वो अपने पति/पत्नी, भाई/बहन या प्रेमी/प्रेमिका को अपना ढ़क्कन समझ लेते हैं जबकि ऐसा नहीं है| बहुत सी परिस्थितियों में ये सभी रिश्ते हमें अपने तरीके से न तो जीने देते हैं और न हमारे लिए सही निर्णय ले पाते हैं क्योंकि इन रिश्तों में अक्सर परोक्ष अस्पष्ट स्वार्थ होता है


हर इंसान को अपने ढ़क्कन की ज़रूरत होती है और यह ढ़क्कन कोई और नहीं हमारा सबसे अच्छा मित्र होता है| हमारे लिए हमारे दोस्त से बेहतर ढ़क्कन कोई और नहीं हो सकता| पर अपने दोस्त को अपना ढ़क्कन बनाने से पहले हमें यह स्पष्ट कर लेना चाहिए कि क्या वो वाकई में हमारा ढ़क्कन बन सकता है? क्योंकि किसी भी डिब्बे का ढ़क्कन एक ही होता है और  हर परिस्थिति में डिब्बे और ढ़क्कन को एक दूसरे का साथ देना ही होता है हमें ढ़क्कन बनने या बनाने से पहले से सोच लेना चाहिए कि ढ़क्कन का डिब्बा, ढ़क्कन नहीं हो सकता क्योंकि आज तक किसी ढ़क्कन का ढ़क्कन बना ही नहीं है| मुमकिन है कि ढ़क्कन का डिब्बा ही उस ढ़क्कन  का ढ़क्कन बन जाए पर ऐसे उदाहरण बहुत कम है|

बहुत बार हम बहुत विचलित होते है लेकिन अपनी विवशता अपने रिश्तेदारों को नहीं बता सकते हैं, क्योंकि वहाँ अपना सम्मान, प्रतिष्ठा सब उनके सामने निर्वस्त्र होने का बहुत बड़ा डर पैदा हो जाता है| ऐसे में हमें एक अच्छे दोस्त की ज़रूरत होती है, जो हमारी बातों को सुनकर अपनी स्पष्ट राय दे सके| हमारी बातों को गोपनीय रख सके

ऐसा दोस्त, दोस्त नहीं आपका ढ़क्कन होता है और मेरे पास एक ऐसा मजबूत, टिकाऊ ढ़क्कन है... :)


Wednesday 9 January 2013

ना-पाक पाकिस्तान


आखिर पाकिस्तान ने अपनी दो कौड़ी की औकात दिखा ही दी| सीमा पर गस्त करते भारतीय सैनिकों की टोली पर गीदड़ों की माफ़िक पीछे से वार करके हमारे दो सैनिक लांस नायक हेमराज व सुधाकर के सिर काट कर अपने साथ ले गए और उनके शरीर को क्षत-विक्षत कर दिया| पाकिस्तान बार बार युद्धविराम नियमों का उल्लंघन करता है और भारत सरकार हर बार विदेश मंत्रालय में सिर्फ अपना विरोध दर्ज करा देती है और भारतीय जनता को सम्बोधित करते हुए इतना ही कहती है कि हम बदला लेंगे, यह बर्दाश्त नहीं किया जाएगा|

पाकिस्तान के ना-पाक इरादे हमेशा ही सामने आते रहते हैं और हम हर बार उन्हें सिर्फ चेतावनी देकर छोड़ देते हैं| पिछले तीन सालों में पाकिस्तान ने करीब १४८ बार युद्धविराम नियमों का उल्लंघन किया है जिसमें हमारे अनेक जवान और नागरिक शहीद हुए हैं पर भारत सिर्फ चेतावनी से काम चला रहा है|

हम क्यों हर बार पाकिस्तान के साथ भाईचारा निभा रहे हैं जबकि पाकिस्तान हमारा जन्मजात दुश्मन है| पाकिस्तान को जब भी मौका मिला है तब तब वह भारतीय सीमा में घुसकर हमारी ही पीठ पर वार किया है| चाहें कारगिल युद्ध हो या मुम्बई में आतंकी हमला, हम हर बार सिर्फ बदला लेंगे कह कर चुप क्यों हो जाते हैं| हमारे जवानों की जाने सस्ती हैं क्या जो पाकिस्तानी कुत्ते हर बार नोंच ले जाते हैं| क्या भारतीय माँओं की कोख और सुहागिनों का सिन्दूर सिर्फ उजड़ने के लिए ही बना है? हर बार हम पकिस्तान के साथ शान्तिवार्ता को आगे बढाते है पर पाकिस्तान हर बार शांतिवार्ता को विफल करता है और तोहमत भारत पर मढ़ता है| अब समय आ गया है कि हमें उसके साथ व्यापारिक सम्बन्धों, राजनीतिक सम्बन्धों और मनोरंजन एवं सांस्कृतिक सम्बन्धों को तिलांजलि दे दे| रतन टाटा एक निजी क्षेत्र के व्यापारी होकर पाकिस्तान के साथ कोई व्यापार नहीं करना चाहते तो भारत सरकार क्यों पाकिस्तान के तलवे चाटने पर तुली है|

पाकिस्तान जिस प्रकार हर बार भारत सरकार की लचर और ढुलमुल रवैये का फ़ायदा उठाकर हमारे जवानों की पीठ पर वार करता है अगर कहीं हमारे सैनिकों ने अंधी, गूँगी और बहरी भारत सरकार का फायदा उठा लिया तो दोज़ख में सड़ता हुआ पाकिस्तान का बाप भी उसे विश्व पटल पर नहीं ढूढ़ पाएगा|

अब बहुत हो चुका, भारत सरकार को क्रिकेट मैच के द्वारा शान्ति प्रचार के बजाय एक बार फिर से सीमा पर मैच करा कर शान्ति को बहाल करने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि लातों के भूत बातों से नहीं मानते| पाकिस्तान की कभी इतनी औकात ही नहीं थी और न कभी होगी कि वो भारत के साथ बराबर में खड़ा हो| यह तो भारत का बड़प्पन है जो भिखारी पाकिस्तान को अपने बराबर बैठा लेता है| पाकिस्तान ज़मीन के जिस टुकड़े पर इतराता फिरता है उसे यह नहीं भूलना चहिये कि वो जमीन का टुकड़ा भारत ने उसे खैरात में दिया है| वरना वो लावारिसों की तरह यहाँ वहाँ पूरे विश्व में भीख माँग रहा होता| देश का छोटा बच्चा तक जानता है कि कुत्तों को घी हज़म नहीं होता फिर भी पता नहीं क्यों भारत सरकार पाकिस्तानी कुत्तों को शांतिवार्ता का घी पिलाने पर उतारू है?

बेशक़ भारत के शीर्षस्थ नेताओं ने चूड़ियाँ पहन रखी हैं पर देश के जवानों ने नहीं| उन्हें अभी तक अपनी मातृभूमि की आन बान शान पर मरना और मारना आता है| वो तो हमारे जवान हैं जो देश और देश की आचार-संहिता का पूरा सम्मान करते हैं वरना इन गीदड़ों को मारने के लिए हमारे जवानों को पलभर भी नहीं लगेगा| अगर भारतीय जवानों सनक गए तो करांची से घुसेगें और सीधे इस्लामाबाद से ही निकलेगें| सुधर जाओ पाकिस्तान क्यों अपनी मटियामेट कराने पर तुले हो| भिखारियों को ज़्यादा मुँह नहीं खोलना चाहिए वरना निवाला देने वाला मालिक मुँह पर सीधे लात ही मारता है|

मुझे सबसे ज़्यादा खिन्नता भारत सरकार से है| भारत सरकार देश की आंतरिक और बाह्य दोनों ही पटलों पर शांति और सुरक्षा बहाल करने में हमेशा ही असमर्थ रही है| देश की सीमा के अंदर आम जनता आंतकी हमलों में मारी जाती और सीमा पर देश का जवान नाहक शहीद होता है| बस अगर देश में कोई सुरक्षित है तो सिर्फ दो टके के नेता और उनकी गज भर लम्बी जबान| भारत दाउद के समधी मियाँदाद को भारत आने का न्यौता देता है| शत्रुघ्न सिन्हा जिया उल हक़ के पोते उस्मान उल हक़ की शादी की दावत खाने जाते हैं| यह सिर्फ देश की जनता और जवानों का सरासर अपमान है| ये नेता किस मुँह से पाकिस्तान को अपना विरोध प्रकट करेगें???

देश के नपुंसक शासक हर बार हमें और हमारे जवानों को इन दो टके के कुत्तों को बर्दाश्त करने पर विवश कर देते हैं| अगर इन नेताओं से कुछ नहीं होता तो चूड़ियाँ पहनकर किनारे क्यों नहीं हो जाते... हम इन कुत्तों को पलभर में मिटा कर भारत का झंडा इस्लामाबाद में गाड़ कर आ जाएगें| बार बार दुश्मन को माफ़ करना या नज़रअंदाज़ करना उदारता नहीं कायरता कहलाती है| अब बहुत हो चुका भारत को अब कठोर कदम उठाना ही होगा वरना ये भिखारी भेड़िये हमारे देश की अस्मिता पर बार बार हाथ डालते रहेगें|

अभी तक तो पाकिस्तान आतंकी घुसपैठ कर रहा था भारत में परन्तु अब वह सैन्य घुसपैठ पर उतारू हो गया है| शायद १९९९ का कारगिल युद्ध भूल गया है| अब समय आ गया है कि पाकिस्तान अपनी औकात दिखाए उससे पहले हमें उसे उसकी औकात दिखा देनी चाहिए|

भारत का बच्चा बच्चा, पाकिस्तानियों की तरह गीदड़ों और सूअरों की औलादें नहीं बल्कि शेर की औलादें हैं और भारतीय सेना का हर जवान शेरों की तरह ही सामने से वार करता है|

सालों अगर एक बाप की औलाद हो तो सामने से वार करो फिर देखो हम कैसे तेरी ########## एक करते हैं|

जय जवान जय भारत...