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Wednesday 26 December 2012

क्या भारत में लोकतंत्र...!!!


राजधानी दिल्ली में चलती बस में २३ वर्ष की छात्रा के साथ हुए गैंगरेप ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है| इस घटना ने पुलिस के साथ साथ सरकार को सवालिया कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया है| सरकार और पुलिस की लचर व्यवस्था के प्रति लोगों का आक्रोश हर शहर की सड़कों पर था| प्रदर्शन और आन्दोलन करने पर हर आम आदमी मज़बूर हो गया है| सरकार ने पिछले १० साल में देश के विकास और भविष्य को ताक पर रखकर घोटाले और सिर्फ घोटाले ही किए हैं| देश की आज़ादी को आज ६५ साल हो चुके हैं पर विकास के नाम पर देश आज भी १०० साल पीछे चल रहा है| अंग्रेजों ने जिस हालत और मोड़ पर भारत को छोड़ा था, हम भारत को वहाँ से आगे ले जाने की बज़ाय पीछे धकेल दिया है|

आज़ादी के बाद से देश में जब भी कभी कोई अप्रिय घटना घटित हुई है, केन्द्र सरकार और राज्य सरकार की ओर से हमेशा पीड़ितों को मुआवज़ा देने की पहल ही की गई है परन्तु इस बार पीड़ित और देश ने सरकार से मुआवज़े की बज़ाय इंसाफ़ माँगा और बहुत हद तक सरकार को इंसाफ़ देने पर मज़बूर भी कर दिया है| अब जनता इंसाफ पाने के लिए सड़कों पर आ गई है, उसे न तो ठंड का एहसास है, न अगुवाई के लिए किसी नेता की ज़रूरत है| अब आम जनता अपने हक़ के लिए सीधे सीधे सरकार से भिड़ने लगी है| जिससे देश की राजनीति अंदर तक हिल गई है| सरकार के साथ साथ विपक्ष की पेशानी पर भी बल पड़ने लगे हैं, क्योंकि जनता अब विपक्ष की भूमिका भी तय करने लगी है|

सरकार की लाख दमनकारी नीति के बावज़ूद इण्डिया गेट, रायसीना हिल और विजय चौक पर हुए जनआंदोलनों और विरोध प्रदर्शन से यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया है कि आम जनता अब पहले से ज़्यादा सजग और विवेकी हो गई है| वह १९४७ की तरह अंधी-बहरी-गूंगी नहीं है, जिसपर कोई भी सरकार अपना हक़ आसानी से बना लेगी, जब मन करेगा शोषण करेगी और जनता मौन स्वीकृति दे देगी| कोई भी नीति-समझौता जबरदस्ती मत्थे मढ देगी| सरकार और उसके नेताओं को बाखूबी समझ में आ जाना चाहिए कि समय बदल गया है, जनता बदल गई है|

अब आम जनता अपना हित-अहित देखने लगी है| आँख बंद करके किसी राजनीतिक पार्टी या राजनेता पर यकीन नहीं करने वाली| सरकार की सख्ती के बावज़ूद जनता जिस प्रकार से उग्र हुई है, उससे सरकार के भविष्य और सेहत पर बहुत बड़ा संकट मंडरा रहा है| जनआन्दोलनों का सरकार जिस प्रकार तानाशाही रवैया अख्तियार करके निर्ममतापूर्वक दमन कर रही है उससे उसकी दूरदर्शिता नहीं बल्कि सत्ता लोलुपता की छवि नज़र आ रही है| जिसका भुगतान निश्चित ही उसे अगले लोकसभा चुनावों में करना पड़ेगा|

और अगर विपक्ष बहुत खुश हो रहा है कि जनता मौजूदा सरकार का पुरजोर विरोध कर रही है तो अगला चुनाव उसके लिए आसान होगा तो वह बहुत बड़े भुलावे में जी रही है| हालिया जनआंदोलनों ने जनता के बीच अपनी साख और घुसपैठ बनाने का विपक्ष को एक सुनहरा मौका दिया था, परन्तु विपक्ष लगातार नाकाम और निष्क्रीय रहा है| विपक्ष से जनता को काफ़ी उम्मीदें थी पर विपक्ष हाथ-पैर हिलाना तो दूर, मुँह से भी कुछ नहीं बोला| यदि विपक्ष की यही हालत रही तो अगले चुनाव में विपक्ष को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने वाला और खुदा-ना-खास्ता अगर विपक्ष सत्ता पर काबिज़ होगा तो बैसाखियाँ ज़रूर लगेगीं, जो उसके लिए सबसे बड़ा सिरदर्द होगा| साथ ही अपनी निष्क्रियता पर उसे भी इसी प्रकार का जनविरोध हर बार झेलना पड़ेगा| अगर विपक्ष गुजरात चुनावों के नतीजों के आधार पर अगली लोकसभा चुनाव का आंकलन कर रही है तो उससे बड़ा मुर्ख दूसरा कोई नहीं है क्योंकि मोदी गुजरात चुनाव किसी पार्टी के दम पर बल्कि अपनी साख और मेहनत पर जीते हैं| यह तो मोदी का बड़प्पन है कि उन्होंने जीत का सेहरा पार्टी के सिर बाँधा|
विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में जनआंदोलनों का सत्तारूढ़ सरकार द्वारा इस प्रकार दमन करना अपने आप में निंदनीय एवं कष्टकारी है जबकि लोकतांत्रिक सरकारों को इन जनआंदोलनों का दमन करने की बजाय उसने सीख लेनी चाहिए| अपनी नीतियों पर एक बार फिर विचार करना चाहिए| जनता के विकास और भविष्य को सुनिश्चित करना चाहिए, जिससे अगले चुनाव में उनकी सत्ता बरक़रार रहे| परन्तु यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि हर बार सत्ताधारी सरकार यह भूल जाती है कि भारत में राजशाही नहीं नौकरशाही है| हर सरकार को हर पाँच साल बाद जनता के बीच आना ही होता है और अगली सरकार-कुर्सी के लिए उसे जनता पर ही निर्भर करना होता है| फिर भी सरकारें मनमानी करती हैं और अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारती हैं|


भारत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि भारत में अनेक छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टी हैं पर कोई भी उसके और उसकी जनता के लिए काम नहीं करती हैं| हर नेता के लिए देश की राजनीति सिर्फ पैसा छापने की मशीन बन गई है| हर नेता जनता के खून-पसीने की कमाई को अपनी अय्याशी में उड़ा रहा है| और इससे बड़ा जनता का दुर्भाग्य यह है कि इतनी पार्टियाँ होने के बावज़ूद उसके पास कोई अच्छा सशक्त विकल्प नहीं है|

एडीआर रिपोर्ट के मुताबिक सांसदों व विधायकों को मिलाकर 141 के खिलाफ हत्या के मामले दर्ज हैं। 352 जनप्रतिनिधियों के ऊपर हत्या के प्रयास का मुकदमा चल रहा है। 90 जनप्रतिनिधियों जिनमें सांसद व विधायक शामिल, के खिलाफ अपहरण के आरोप हैं।जबकि 75 डकैती के आरोप में नामज़द हैं।

यह रिपोर्ट लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ी करती है| देश की राजनीति में बहुत से लोग ऐसे हैं जिनको जेलों में होना चाहिए पर वो सत्ता में बैठकर देश को संचालित कर रहे हैं| ऐसे में न्यायपालिका और विधायका से निष्पक्षता की कतई उम्मीद नहीं की जा सकती| ऐसे में देश की स्वतंत्र इकाई चुनाव आयोग को चाहिए कि दोषियों के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगाए या फिर ईवीएम मशीन पर “रिजेक्ट” का बटन बनाए| जिससे लोकतंत्र प्रणाली का कुछ तो स्वरुप परिलक्षित हो|





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