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Tuesday 29 April 2014

औरत और बाज़ारवाद

स्त्री ईश्वर की एक अनुपम कृति है... अनुपम इसलिए क्योंकि स्त्री ही सृष्टि की प्रथम संचालिका है| निसंदेह पुरुष सृष्टि के विस्तारण एवं कियान्वयन का अनिवार्य एवं आवश्यक घटक है परन्तु स्त्री जीवन-स्रोत है| समय के साथ साथ औरतों की स्थितियों में बहुत सुधार हुआ है, जबकि पहले औरतों की ज़िन्दगी नरकीय थी| औरतों को ऐसे दूषित एवं श्रापित जीवन से निकालने के लिए अनेक समाज-सुधारकों ने जी तोड़ मेहनत की हैं| स्त्रियों के सम्मान  के लिए मदनमोहन मालवीयराजा राममोहन रायईश्वरचन्द्र विद्यासागरलार्ड विलियम बैंटिक, एनी बेसेंट आदि समाज-सुधारकों ने समाज और उसमें प्रचलित कुप्रथाओं से एक सशक्त लड़ाई लड़ी और जिसका परिणाम है कि आज उत्साह और जोश से लबरेज़  औरत विकास के पथ पर पुरुष के साथ बराबर चल रही है, दौड़ रही है... अपने पैरों पर खड़ी है| उसमें कुछ कर गुज़रने की, समाज में अपनी पहचान पाने की ललक और लालसा कूट कूट कर भर गयी हैवह अपने आत्म-सम्मान के लिए लड़ना सीख गयी है, आँखों में आँखें डालकर अपने हित-अहित के लिए बोलना सीख गई है|

समाज सुधारकों ने अपने अथक प्रयासों से औरतों में तो आत्मविश्वास ऊपर तक लबालब भर दिया है लेकिन पुरुषों की सोच और व्यवहार में परिवर्तन कर पाने में असमर्थ रहे, पुरुष पहले की तरह आज भी औरत को मात्र ज़िस्म ही समझता है| हाँ कभी-कभार औरत के साथ रहते-रहते किसी पुरुष को उससे प्रेम हो जाता है वरना औरत जहाँ से चली थी वही पर खड़ी है|  आज भी शिक्षित समाज में स्त्रियों की पहचान उनके काम और कीर्ति की बज़ाय, जननांगों द्वारा ही की जाती है|  शिक्षित एवं जागरूक पुरुष भी उसे मात्र एक जोड़ी स्तन और एक योनि के दायरे में बाँध कर परिभाषित करता है| पुरुष, औरत को योनि और स्तन से परे सोच पाने में अभी तक सक्षम नहीं हो पाया| पुरुष, औरत के साथ प्रेम या मित्रता के रिश्ते की बज़ाय मात्र ज़िस्म का रिश्ता चाहता हैवह औरत के हृदय की बज़ाय उसकी योनि की गहराई नापना चाहता है|

आज पहले की तुलना में समाज शिक्षित है, जागरूक है फिर भी औरतों के साथ अमर्यादित व्यवहार हो रहा है| नित नये तरीकों से उनका शोषण किया जा रहा है| वर्तमान समय में इसका एक मुख्य कारण बढ़ता बाज़ारवाद भी है| बाज़ारवाद और उसमें होने वाली गला काट प्रतिस्पर्धायों ने औरतों को एक बार फिर से मनोरंजन का आसान साधन बना कर पेश कर दिया है| लेकिन इस बार औरतों भी अपनी बर्बादी में बराबर की ज़िम्मेदार एवं भागीदार हैं| वे स्वयं “सेक्स सिम्बल” बनना चाह रही हैं| पहले औरतें पुरुषों के सामान ही अपने वक्षस्थल को नहीं ढकती थी लेकिन उस समय स्त्रियों के स्तन ममत्व का प्रतीक थे, वक्षस्थल को सम्मानित दृष्टि से देखा जाता था परन्तु आज वक्षस्थल को तो छोड़िये, सम्पूर्ण नारी को सिर्फ़ काम-भावना से ही देखा जाता है और औरतें भी स्वयं को “सेक्सी”, “सेक्स बम” या “सेक्स सिम्बल” कहलवाने पर गौरवान्वित महसूस करती है|

टी.वी. पर आने वाले दस में से नौ विज्ञापन, औरतों को बाज़ार में बिकने वाली चीज़ों की तरह पेश करती नज़र आती है| साबुन, डियो, परफ़्यूम, मोबाइल, मंजन, कार, बाइक, टॉफ़ी आदि दैनिक उपयोग की चीज़ों के इस्तेमाल में “सेक्स और औरतों” की कोई ज़रूरत ही नहीं है फिर भी इन उत्पादों के विज्ञापनों में “सेक्स अपील” को प्रमुखता से रेखांकित किया जा रहा हैं| सेनेटरी नैपकीन, ब्रा-पैंटी, कंडोम और गर्भनिरोधक गोलियों के विज्ञापन तो “प्राइम टाइम” पर थोक के भाव में दिखाते हैं| सेनेटरी नैप्कीनों के विज्ञापनों में कैमरा का एंगल ऐसा रहता है कि आप अभिनेत्री के नितम्बों के अलावा कुछ और देख ही नहीं सकते और ब्रा के विज्ञापनों में लड़कियां ब्रा और अपने वक्षों से खेलती नज़र आती हैं और पास खड़ा लड़का वक्ष को काम-भावना से देख रहा होता है| कंडोम के विज्ञापनों में औरतों की कोई ज़रूरत ही नहीं है लेकिन उत्पादक कम्पनियों ने अपने उत्पाद को बेचने के लिए औरतों के पसंदीदा “फ़्लेवर”, “संतुष्टि” और “भावनाओं” को अपना हथियार बना लिया| वही एक नामी कम्पनी की 24 घंटे में काम करने वाली कॉंन्ट्रासेप्टिव पिल्स का विज्ञापन टी.वी. पर आते ही गोलियों की बिक्रीदर अचानक बढ़ गयी, क्योंकि कम्पनी ने यौन-क्रिया के तुरंत बाद चुटकी बजाते ही अनचाहें गर्भ से छुटकारा पाने का आसान और सस्ता रास्ता दे दिया| कंडोम और कॉंन्ट्रासेप्टिव पिल्स के विज्ञापनों को देखकर ऐसा लगता है, जैसे किसी के साथ कभी भी रोमांच और मनोरंजन के लिए पूरी आज़ादी से यौन-सम्बन्ध बनाये जा सकते हैं| सेक्स, एक प्राकृतिक एवं आवश्यक क्रिया न होकर मनोरंजन और रोमांच का एक अन्य नया आयाम है| जबकि कंडोम और कॉंन्ट्रासेप्टिव पिल्स का मुख्य काम जनसंख्या वृद्धि की रोकथाम है| लेकिन बाज़ारवाद में आगे निकलने की होड़ ने हर चीज़ को सेक्स और औरत से जोड़ दिया है|

अभिनेत्रियों में तो मानो जैसे होड़ लगी है कि सबसे पहले पर्दे पर नंगी कौन होगी| पहले फिल्मों में चुम्बन और सुहागरात के दृश्यों को वैकल्पिक माध्यम से दर्शाते थे वही आज हर हीरो-हिरोइन एक दूसरे के मुंह में मुंह डाले होंठ चबाते नज़र आते हैं| सेक्स के बढ़ते बाज़ारवाद की वज़ह से हर फ़िल्म की पटकथा में सेक्स मुख्य विषय बन गया है| “आज ब्लू है पानी पानी और ये दुनियां पीत्तल दी” के गानों में औरत और उसके ज़िस्म को जिस तरह समाज में परोसा गया है, देखकर किसी बड़े विनाश का संकेत लगता है| बाज़ार में रोज़ बढ़ते “पोर्न फ़िल्मों और पोर्न साहित्यों” से न जाने अभी कितने और “निर्भया काण्ड” होने बाकी हैं|

बाज़ारवाद ने औरतों से उनकी हया, अदा, नज़ाकत जैसे प्राकृतिक सौन्दर्य छीन लिए हैं और सेक्स का नक़ाब लगा दिया है| अगर समाज अभी नहीं  जागा तो विचारकों और सुधारकों के सारे किये कराए पर पानी फिर जाएगा| औरतें पहले से भी ज़्यादा दुष्कर परिस्थितियों में होगी, जहाँ से उन्हें निकाल पाना बेहद मुश्किल होगा| बाज़ार उत्पादों को बेचने के लिए बनाये गये है न कि औरतों के ज़िस्मों की नुमाइश के लिए| सेंसरबोर्ड, पुलिस, नेता, अभिनेता या साधारण आदमी कोई भी औरत के ज़िस्म की होती यूँ नुमाइश की रोक के लिए कदम नहीं उठा रहा है... यहाँ तक स्वयं औरत ही कुछ नहीं कर रही है| वह स्वयं अपने कपड़े भरी महफ़िल में उतारने के लिए उतारू हो रही हैं| अगर ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन ज़्यादा दूर नहीं जब औरत फिर से बाज़ार में बिकने के लिए खड़ी होगी और तब शायद कोई राजा राममोहन राय या लार्ड विलियम बैंटिक नहीं आयेगें, उसे फ़िर से दलदल से निकाने क्योंकि तब हर कोई औरत को बाज़ार की एक वस्तु मानने के आदी हो चुके होगें|




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